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पाप पदार्थ : टिप्पणी ६
अन्तराय कर्म के बंध-हेतुओं का नामोल्लेख पहले आ चुका है' । हेमचन्द्रसूरि कहते हैं: "दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य- इनमें कारण या बिना कारण विघ्न करना अन्तराय कर्म के आस्रव हैं ।"
अन्तराय कर्म के विवेचन के साथ घनघाती कर्मों का विवेचन सम्पूर्ण होता है। इन चार घनघाती - कर्मों में ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय ये दो आवरण-स्वरूप हैं। मोहनीय कर्म विवेक को विकृत करता है । अन्तराय - कर्म विघ्न-रूप है।
प्रथम दो आवरणीय कर्मों के क्षय से जीव को निर्वाण रूप सम्पूर्ण प्रतिपूर्ण अव्याहत, निरावरण, अनन्त और सर्वोत्तम केवल - ज्ञान-दर्शन उत्पन्न होता है। जीव अर्हत्, जिन, केवली, सर्वज्ञ तथा सर्वभावदर्शी होता है। विवेक को दूषित करने वाले मोहनीयकर्म के क्षय से शुद्ध अनन्त चारित्र उत्पन्न होता है । अन्तराय कर्म के क्षय से अनन्त-वीर्य प्रकट होता है। इस तरह घनघाती कर्मों का क्षय अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति का कारण होता हैं।
९. असाता वेदनीय-कर्म ( गा० ४३-४४ ) :
जिस कर्म से सुख दुःख का वेदन- अनुभव हो उसे वेदनीय कर्म कहते हैं । वेदनीय कर्म दो प्रकार का है- (१) साता वेदनीय और (२) असाता वेदनीय । इस कर्म की तुलना मधु-लिप्त तलवार की धार से की गई है । तलवार की धार में लगे हुए मधु को जीभ से चाटने के समान साता वेदनीय और तलवार की धार से जीभ के कटने की तरह असातावेदनीय कर्म हैं। जिस कर्म के उदय से सुख का अनुभव हो वह साता वेदनीय है । जिस कर्म के उदय से जीव को दुःख रूप अनुभव हो वह असाता वेदनीय है।
१. देखिए पुण्य पदार्थ (ढा० २) : टिप्पणी २३ पृ० २३०
२.
नवतत्त्वसाहित्यसंग्रह : सप्ततत्त्वप्रकरणम् गा० ११० :
३२७
३.
दाने लाभे च वीर्ये च, तथा भोगोपभोगयोः । सव्याजाव्याज विघ्रोन्तरायकर्मण आश्रवाः ।।
(क) ठाणाङ्ग २.४, १०५ टीका तथा वेद्यते - अनुभूयत इति वेदनीयं, सातं - सुखं तद्रू पतया वेद्यते यत्तत्तथा, दीर्घत्वं प्राकृतत्वात्, इतरद् - एतद्विपरीतम्, आह चमहुलित्तनिसियकरवालधार जीहाए जारिसं लिहणं ।
सुदुरप्पायागं
मुणह ।।
तारिसयं
(ख) प्रथम कर्मग्रन्थ १२ :
महुलित्तखग्गधारलिहणं व दुहाउ वेयणियं । ।