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पाप पदार्थ : टिप्पणी ८
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(५) वीर्य-अन्तराय कर्म : वीर्य एक प्रकार की शक्ति विशेष है। बौद्ध ग्रंथों में भी इसी अर्थ में वीर्य शब्द का प्रयोग मिलता है। योग-मन-वचन-काय के व्यापार-वीर्य से उत्पन्न होते हैं। संसारी जीव में सत्तारूप में अनन्त वीर्य होता है । जो कर्म आत्मा के वीर्य-गुण का अवरोधक होता है-उसे वीर्यान्तराय कर्म कहते हैं। निर्बलता इसी कर्म का फल होता है। कहा है : “वीर्य, उत्साह, चेष्टा, शक्ति पर्यायवाची शब्द हैं। जिस कर्म के उदय से अल्पायुष्यवाला युवा भी अल्प प्राणतावाला होता है उसे वीर्यान्तराय कर्म कहते हैं।
वीर्य तीन हैं : (१) बाल-वीर्य : जिसके थोड़े भी त्याग-प्रत्याख्यान नहीं होते, जो अविरत होता है उस बाल का वीर्य बाल-वीर्य कहलाता है। (२) पण्डित-वीर्य : जो सर्वविरत होता है उस पण्डित का वीर्य पण्डित वीर्य है। (३) बाल-पण्डित वीर्य : जो कुछ अंश में त्यागी है और कुछ अंश में अविरत, उस बाल-पण्डित का वीर्य बाल-पण्डित वीर्य है। वीर्यान्तराय कर्म इन तीनों प्रकार के वीर्यों का अवरोध करता है। इस कर्म के प्रभाव से जीव के उत्थान', कर्म', बल', वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम क्षीण-हीन होते हैं।
१. ठाणाङ्ग १०.१.७४० २. अंगुत्तरनिकाय ५.१ ३. भगवती १.३ ४. भगवती १.८ ५. यदुदयात् नीरोगस्य तरुणस्य बलवतोऽपि निर्वीर्यता स्यात् स वीर्यन्तरायः ६. तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ८.१४ सिद्धसेन :
तत्र कस्यचित् कल्पस्याप्युपचितवपुषोऽपि यूनोऽप्याल्पप्राणता यस्य कर्मण उदयात् स
वीर्यान्तराय इति। ७. उत्थान-चेष्टाविशेष (ठा० १.१.४२ टीका) ८. कर्म-भ्रमणादि क्रिया (वही) ६. बल-शरीर-सार्मथ्य (वही) १०. वीर्य-जीव से प्रभव शक्तिविशेष (वही) ११. पुरुषकार-अभिमान विशेष । पराक्रम-अभिमान विशेष को पूरा करने का प्रयत्न विशेष
(वही : पुरुषकारश्च-अभिमानविशेषः पराक्रमश्च-पुरुषकार एव निप्पादितस्वविषय इति विग्रहे द्वन्द्वैकवद्भावः)