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नव पदार्थ
८. अन्तराय कर्म (गा० ३७-४२) :
अन्तराय का अर्थ है बीच में उपस्थित होना-विघ्न करना-व्याघात करना । जो कर्म क्रिया, लब्धि, भोग और बल-स्फोटन करने में अवरोध उपस्थित करे उसे अन्तराय कर्म कहते हैं। इसकी तुलना राजा के भण्डारी के साथ की जाती है। राजा की दान देने की इच्छा होने पर भी यदि भण्डारी कहे कि खजाने में कुछ नहीं है तो राजा दान नहीं दे पाता वैसे ही अन्तराय कर्म के उदय से जीव की स्वाभाविक अनन्त कार्य-शक्ति कुण्ठित हो जाती है। __ अन्तराय कर्म की पाँच प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं :
(१) दान-अन्तराय कर्म : इसका उदय दान देने में विघ्नकारी होता है। जो कर्म दान नहीं देने देता वह दानान्तराय कर्म है। मनुष्य सत्पात्र दान में पुण्य जानता है, प्रासुक एषणीय वस्तु भी पास में होती है, सुपात्र संयमी:साधु भी उपस्थित होता है इस तरह सारे संयोग होने पर इस कर्म के उदय से जीव दान नहीं दे पाता।
(२) लाभ-अन्तराय कर्म : यह वस्तुओं की प्राप्ति में बाधक होता है। जो कर्म उदित होने पर शब्द-गंध-रस-स्पर्श के लाभ अथवा ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप आदि के लाभ को रोकता है वह लाभान्तराय कर्म कहलाता है। द्वारका जैसी नगरी में घूमते रहने पर भी ढंढण ऋषि को भिक्षा न मिली यह लाभन्तराय कर्म का उदय था।
(३) भोग-अन्राय कर्म : जो वस्तु एक बार ही भोगी जा सके, उसे भोग कहते हैं जैसे-खाद्य, पेय आदि । जो कर्म भोग्य वस्तुओं के होने पर भी उन्हें भोगने नहीं देता उसे भोगान्तराय कर्म कहते हैं। दाँतों में पीड़ा होने पर सरस भोजन नहीं खाया जा सकता-यह भोगान्तराय कर्म का उदय है।
(४) उपभोग-अन्तराय कर्म : जो वस्तु बार-बार भोगी जा सके उसे उपभोग कहते है जैसे-मकान, स्त्र आदि। जो कर्म उपभोग वस्तुओं के होने पर भी उन्हें भोगने नहीं देता उसे उपभोगान्तराय कर्म कहते हैं। वस्त्र, आभूषण आदि होने पर भी वैधव्य के कारण उनका उपभोग न कर सकना, उपभोग-अन्तराय कर्म का उदय है।
१. (क) ठाणाङ्ग २.४.१०५ की टीका : जीवं चार्थसाधनं चान्तरा एति-पततीत्यन्तरायम्, इदं चैवं
जह राया दाणाई ण कुणई भंडारिए विकूलंमि।
एवं जेणं जीवो कम्मं तं अंतरायंति ।। (ख) देखिए पृ० ३०३ पा० टि० २ (ख)