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पाप पदार्थ : टिप्पणी ६-७
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(१२-१३) ब्रह्मचारी नहीं होने पर भी अपने को ब्रह्मचारी प्रसिद्ध व्यक्त करना, तथा कपट रूप से विषय सुखों में आसक्त रहना।
(१४) गांव की जनता अथवा स्वामी के द्वारा समर्थ और धनवान बन जाने पर, फिर उन्हीं लोगों के प्रति ईर्ष्या-दोष या कलुषित मन से उनके सुखों में अन्तराय देने का सोचना या विघ्न उपस्थित करना।
(१५) अपने भर्ता-पालन करने वाले की हिंसा करना। (१६) राष्ट्र-नायक, वणिक्-नायक अथवा किसी महा यशस्वी श्रेष्ठी को मारना। (१७) नेता-स्वरूप अथवा अनेक प्राणियों के त्राता सद्दश पुरुष को मारना। (१८) दीक्षाभिलाषी, दीक्षित, संयत और सुतपस्वी पुरुष को धर्म से भ्रष्ट करना। (१६) अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन युक्त जिनों की निन्दा करना। (२०) सम्यग्ज्ञानदर्शन युक्त न्याय मार्ग की बुराई करना, धर्म के प्रति द्वेष और निन्दा के भावों का प्रचार करना।
(२१) जिस आचार्य या उपाध्याय की कृपा से श्रुत और विनय की शिक्षा प्राप्त हुई हो उसी की निन्दा करना।
(२२) आचार्य और उपाध्याय की सुमन से सेवा न करना।
(२३) अबहुश्रुत होते हुए भी अपने को बहुश्रुत व्यक्त करना और स्वाध्यायी न होने पर भी अपने को स्वाध्यायी व्यक्त करना।
(२४) तपस्वी न होते हुए भी अपने को तपस्वी घोषित करना।
(२५) सशक्त होते हुए भी अस्वस्थ अन्य साधु-साध्वियों की सेवा इस भाव से न करना कि वे उसकी सेवा नहीं करते।
(२६) सर्वतीर्थों का भेद तथा धर्म-विमुख करने वाली हिंसात्मक और कामोत्तेजक कथाओं को बार-बार कहना। ___ (२७) आत्म-श्लाघा या मित्रता प्राप्ति के लिए अधार्मिक वशीकरणं आदि योगों का बार-बार प्रयोग करना। (२८) मानुषिक या दैविक भोगों की अतृप्ति पूर्वक अभिलाषा करना। (२६) देवों की ऋद्धि, द्युति, यश, वर्ण, बल और वीर्य की निन्दा करना। (३०) 'जिन' के समान पूजा की इच्छा से नहीं देखते हुए भी मैं देव, यक्ष और गुह्यों को देख रहा हूँ ऐसा कहना।
___ मोहनीय कर्म की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोटा-कोटि सागरोपम की होती है।
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उत्त० ३३.२१
उदहीसरिसनामाणं सत्तरि कोडिकोडीओ। मोहणिज्जस्स उक्मेसा अन्तोमुहत्तं जहन्निया ।।