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नव पदार्थ
(७) प्रचला। जिस कर्म से खड़े-खड़े या बैठे-बैठे भी नींद आये उसे प्रचला दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं।
(८) प्रचला-प्रचला। जिस कर्म से चलते-फिरते भी नींद आये उसे प्रचला-प्रचला दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं।
(६) स्त्यानर्धि (स्त्यानगृद्धि)। जिस कर्म से दिन में सोचा हुआ काम निद्रा में किया जाय ऐसा बल आये, उसे स्त्यानर्धि दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं।
गोम्मटसार में निद्रा-पंचक के विषय में निम्न विवेचन मिलता है :
१. 'स्त्यानगृद्धि' के उदय से जागने के बाद भी जीव सोता रहता है, यद्यपि वह काम करता व बोलता है।
२. 'निद्रा निद्राः के उदय से जीव आँखें नहीं खोल सकता। ३. 'प्रचला प्रचला' के उदय से लार गिरती है और अंग चलते-काँपते हैं।
४. 'निद्रा, के उदय से चलता हुआ जीव ठहरता है, बैठता है और गिर जाता है। । ५. 'प्रचला' के उदय से जीव के नेत्र कुछ खुले रहते हैं और वह सोते हुए थोड़ा-थोड़ा जागता है और बार-बार मंद-मंद सोता है।
निद्रा-पंचक के क्रम में श्वेताम्बरीय और दिगम्बरीय ग्रंथों में जो भेद है वह उपर्युक्त दोनों वर्णनों से स्वयं स्पष्ट है। 'प्रचला प्रचला', 'निदा', और 'प्रचला' इन भेदों के अर्थ में भी विशेष अन्तर है।
तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बर पाठ और भाष्य में 'निद्रा' आदि के बाद वेदनीय' शब्द रखा गया है। दिगम्बरीय पाठ में इनके बाद वेदनीय' शब्द नहीं है। सर्वार्थसिद्धि टीका
१. गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) २३-२५ :
थीणुदयेणुट्ठविदे सोवदि कम्मं करेदि जप्पदि य। णिद्दाणिद्दुदयेण य ण दिट्ठिमुग्घादितुं सक्को ।। पयलापयलुदयेण य वहेदि लाला चलंति अंगाई। णिद्ददये गच्छंतो ठाइ पुणो वइसइ पडेई।। पयलुदयेण य जीवो ईसुम्मीलिय सुवेइ सुत्तोवि।
ईसं ईसं जाणदि मुहं मुहं सोवदे मंदं ।। २. तत्त्वार्थसूत्र ८.८ :
...निद्रानिद्रानिद्रा प्रचलाप्रचलाप्रचलास्त्यानगृद्धिवेदनीयानि च