________________
पाप पदार्थ : टिप्पणी ६-७
३११
६.७. मोहनीय कर्म (गा० १६-३६) :
जो कर्म मूढ़ता उत्पन्न करे उसे मोहनीय कर्म कहते हैं । यह कर्म स्व-पर विवेक में तथा स्वरूप-रमण में बाधा पहुंचाता है। इस कर्म की तुलना मद्य के साथ की जाती है। 'मज्जं व मोहणीयं' (प्रथम कर्मग्रन्थ १३)। जिस तरह मदिरा-पान से मनुष्य परवश हो जाता है और उसे अपने और पर के स्वरूप का भान नहीं रहता तथा अपने हिताहित का विवेक भूल जाता है वैसे ही इस कर्म के प्रभाव से जीव को तत्त्व-अतत्त्व का भेदज्ञान नहीं रहता और वह दुष्कृत्यों में फंस जाता है'।
मोहनीय कर्म दो प्रकार का होता है-(१) दर्शन-मोहनीय और (२) चारित्र-मोहनीय । यहाँ दर्शन का अर्थ है श्रद्धा, तत्त्वनिष्ठा, सम्यक् दृष्टि अथवा सम्यक्त्व । जो कर्म सम्यक् दृष्टि उत्पन्न न होने दे, तत्त्व-अतत्त्व का भेद-ज्ञान न होने दे उसे दर्शन-मोहनीय कर्म कहते हैं। जो सम्यक् चारित्र-आचरण को न होने दे उसे चारित्र मोहनीय कर्म कहते
हैं।
दर्शन-मोहनीय कर्म तीन प्रकार का होता है(१) सम्यक्त्व-मोहनीय : जो कर्म सम्यक्त्व का प्रकट होना तो नहीं रोकता पर औपशमिक अथवा क्षायक सम्यक्त्व (निर्मल अथवा स्थिर सम्यक्त्व) को उत्पन्न नहीं होने देता उसे सम्यक्त्व-मोहनीय कर्म कहते हैं।
(२) मिथ्यात्व-मोहनीय : जो कर्म तत्त्वों में श्रद्धा उत्पन्न नहीं होने देता और विपरीत श्रद्धा उत्पन्न करता है, उसे मिथ्यात्व-मोहनीय कर्म कहते हैं।
(३) सम्यमिथ्यात्व-मोहनीय : जो कर्म चित्त की स्थिति को चलायमान रखता है-तत्त्वों में श्रद्धा भी नहीं होने देता और अश्रद्धा भी नहीं होने देता उसे सम्यमिथ्यात्वमोहनीय
१. (क) ठाणाङ्ग २.४.१०५ की टीका :
जह मज्जपाणमूढो लोए पुरिसो परव्वसो होइ।
तह मोहेणवि मूढो जीवो उ परव्यसो होइ।। (ख) देखिए पृ० ३०३ पा० टि० २ (ख) २. (क) उत्त० ३३.८
(ख) ठाणाङ्ग २.४.१०५
(ग) प्रज्ञापना २३.२ ३. उत्त० ३३.६ ४. प्रज्ञापना (२३.२) में सम्यक्त्व मोहनीय आदि को सम्यक्त्व वेदनीय आदि कहा है।