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पाप पदार्थ : टिप्पणी ६-७
२०. भय मोहनीय : जो कर्म निमित्त से या अनिमित्त ही भय उत्पन्न करे उसे भय मोहनीय कर्म कहते हैं ।
२१. शोक मोहनीय : जो कर्म शोक उत्पन्न करे उसे शोक मोहनीय कर्म कहते हैं ।
२२. जुगुप्सा मोहनीय : जो कर्म घृणा उत्पन्न करे उसे जुगुप्सा मोहनीय कर्म कहते हैं'। आचार्य पूज्यपाद जुगुप्सा की परिभाषा इस प्रकार करते हैं: “यदुदयादात्मदोषसंवरणं परदोषाविष्करणं सा जुगुप्सा ।" अर्थात् जिसके उदय से आत्म-दोषों के संवरण- छिपाने की और पर-दोषों के आविष्करण - ढूंढने की प्रवृत्ति होती है वह जुगुप्सा है।
२३. स्त्री-वेद : जिस तरह पित्त के उदय से मधुर रस की अभिलाषा होती है वैसे ही जो कर्म पुरुष की अभिलाषा उत्पन्न करे उसे स्त्री-वेद कर्म कहते हैं । "जिसके उदय से जीव स्त्री-वेद सम्बन्धी भावों को प्राप्त होता है वह स्त्री-वेद है ।"
स्त्री-वेद करीषाग्नि की तरह होता है। स्त्री की भोग इच्छा गोबर की आग की तरह धीरे-धीरे प्रज्वलित होती है और चिर काल तक धधकती रहती है ।
(२४) पुरुष - वेद : जिस तरह श्लेष्म के उदय से आम्ल रस की अभिलाषा होती है वैसे ही जो कर्म स्त्री की अभिलाषा उत्पन्न करे उसे पुरुष-वेद कर्म कहते हैं । आचार्य पूज्यपाद पुरुषवेद की परिभाषा इस प्रकार करते हैं: "जिसके उदय से जीव पुरुष संबंधी भावों को प्राप्त होता है वह पुंवेद है ।"
पुरुष-वेद तृणाग्नि के सदृश होता है जैसे तृण की अग्नि जलती और बुझती है वैसे ही पुरुष शीघ्र उत्तेजित और शान्त होता है ।
(२५) नपुंसक वेद : जिस तरह पित्त और श्लेष्म दोनों के उदय से मज्जिका की अभिलाषा होती है वैसे ही जो कर्म स्त्री और पुरुष दोनों की अभिलाषा उत्पन्न करे उसे
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प्रथम कर्मग्रन्थ २१ :
जस्सुदा होइ जिए हास रई अरइ सोग भय कुच्छा ।
सनिमित्तमन्नहावा तं इह हासाइ मोहणियं । ।
तत्त्वा० ८.६ सर्वार्थसिद्धि :
यदुदयात्स्त्रैणान्भावान्प्रतिपद्यते स स्त्रीवेदः
प्रथम कर्मग्रन्थ २२ :
पुरिसित्थितदुभयंपइ अहिलसो जव्वसा हवइ सोउ । श्रीनरनपुवेउदओ फुंफुमतणनगरदाहसमो ।।
तत्त्वा० ८.६ सर्वार्थसिद्धि :
यस्योदयात्पौंस्नान्भावान स्कन्दति स पुंवेदः
५. देखिए उपर्युक्त पा० टि० ३