________________
पुण्य पदार्थ : (ढाल : १) टिप्पणी १५
देते हैं इसलिए इनसे (दस धर्म से) पुण्य का भी व्यवहार अपेक्षा बंध होता है सो स्वयंमेव, होता ही है, उसकी वांछा करना तो संसार की वांछा करना है और ऐसा करना तो निदान हुआ, मोक्षार्थी के यह होता नहीं है। जैसे किसान खेती अनाज के लिए करता है उसके घास स्वयंमेव होती है उसकी वांछा क्यों करे ? वैसे ही मोक्षार्थी को पुण्य बंध की वांछा करना योग्य नहीं ।"
૧૧
यह स्वामीजी के उद्गारों पर सहज सुन्दर टीका हे ।
मन, वचन, काया की निष्पाप प्रवृत्ति को शुभ योग या निरवद्य योग कहते हैं ।
आत्मा की एक प्रकार की वृत्ति विशेष को लेश्या कहते हैं । लेश्याएँ छ: हैं- कृष्ण, नील, कापोत, तेजो, पद्म और शुक्ल । प्रथम तीन लेश्याएँ अधर्म लेश्याएँ कहलाती हैं। और अन्तिम तीन धर्म लेश्याएँ । अधर्म लेश्याएँ दुर्गति का कारण हैं और धर्म लेश्याएँ
का
साश्रव, अगुप्त, अविरत, तीव्र आरम्भ में परिणत आदि योगों से समायुक्त मनुष्य कृष्ण लेश्या के परिणामवाला; ईर्ष्यालु, विषयी, रसलोलुप, प्रमत्त, आरम्भी आदि योगों से समायुक्त मनुष्य नील लेश्या के परिणामवाला; और वक्र, कपटी, मिथ्यादृष्टि, आदि योगों से समायुक्त मनुष्य कापोत लेश्या के परिणामवाला होता है।
नम्र, अचपल, दान्त, प्रियधर्मी, दृढ़धर्मी, पापभीरू, आत्महितैषी आदि योगों से समायुक्त पुरुष तेजो; प्रशांतचित्त, दान्तात्मा जितेन्द्रिय आदि योगों से समायुक्त पुरुष पद्म; और आर्त्त तथा रौद्रध्यान को त्याग धर्म और शुक्लध्यान को ध्यानेवाला आदि योगों से समायुक्त व्यक्ति शुक्ल लेश्या में परिणमन करनेवाला होता है।
परिणाम दो तरह के होते हैं- शुभ अथवा अशुभ परिणाम अर्थात् आत्मा के
अध्यवसाय ।
स्वामीजी कहते हैं निरवद्य योग, धर्म लेश्या और शुभ परिणामों से कर्मों की निर्जरा होती है, संचित पाप-कर्म आत्म प्रदेशों से दूर होते हैं। ऐसे समय पुण्य स्वयमेव आत्म-प्रदेशों में गमन करते हैं। पुण्य कर्मों के लिए स्वतन्त्र क्रिया की आवश्यकता नहीं होती। शुभ योग से जब निर्जरा होती है तो आत्मप्रदेशों के कम्पन से आनुषंगिक रूप से पुण्य कर्मों का बंध होता है ।
पुण्य की कामना का अर्थ है - कामभोगों की कामना । कामभोगों की कामना करना - अविरति है, आर्त्तध्यान है, अनुपशांतता भाव है, आत्मभाव को छोड़ परभाव में रमण है । वह न निरवद्य योग है, न शुभ लेश्या है और न शुभ परिणाम । किन्तु सावद्य योग, अशुभ लेश्या और अशुभ परिणाम है। इससे पुण्य नहीं होता, पाप का बंध होता है ।
१. द्वादशानुप्रेक्षा पृ० २८३-४