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नव पदार्थ
जो जीव दुःखी हैं वे यहाँ अपने किये हुए दुष्कृत्यों से दुःखी हैं-'दुक्खंति दुक्खी इह ' दुक्कडेणं' (सुय० १.५.१.१६)। जैसा दुष्कृत होता है, वैसा ही उसका भार होता है-'जहा कडं कम्म तहासि भारे' (सुय० १.५.१.२६)।
स्वामीजी ने इन्हीं आगमिक वचनों के आधार पर कहा है कि दुःख स्वयं कमाये हुए होते हैं-'ते आप कमाया काम' | 'आप कीधां जिसा फल भोगवे, कोई पुद्गल रो नहीं दोस । जब जीव दुष्कृत्य करता है तब पापकर्म का बंध होता है। जब पापकर्म का उदय होता है तब दुःख उत्पन्न होता है। यह 'जैसी करनी वैसी भरनी' है, इसमें दोष कर्म पुद्गलों का नहीं अपनी दुष्ट आत्मा का है। "आत्मा ही सुख-दुःख को उत्पन्न करने वाला और न करने वाला है। आत्मा ही सदाचार से मित्र और दुराचार से अमित्र-शत्रु
भगवान महावीर के समय में एक वाद था जो सुख-दुःख को सांगतिक मानता था। उस मत का कहना था-"दुःख स्वयंकृत नहीं है, फिर वह अन्यकृत तो हो ही कैसे सकता है ? सैद्धिक हो अथवा असैद्धिक जो सुख-दुःख है वह न स्वयंकृत है न परकृत, वह सांगतिक है। भगवान ने इस मत की आलोचना करते हुए कहा है-"ऐसा कहने वाले अपने आप को पंडित भले ही मानें, पर वे बाल हैं।" वे पार्श्वस्थ हैं। 'ण ते दुक्खविमोक्खया' (सुय० १.१.२.५)-वे दुःख छुड़ाने में समर्थ नहीं हैं।
१.
२.
उत्त० २०.३६.३७ :
अप्पा नई वेयरणी अप्पा मे कूडसामली। अप्पा कामदुहा धेणू अप्पा मे नन्दणं वणं ।। अप्पा कत्ता विकत्ता य दुक्खाण य सुहाण य।
अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पट्ठियसुपट्ठिओ।। सुयगडं १.१.२.२-३ :
न तं सयं कडं दुक्खं, कओ अन्नकडं च णं ? सुहं वा जइ वा दुक्खं, सेहियं वा असेहियं ।। सयं कडं न अण्णेहिं, वेदयंति पुढो जिया।
संगइअं तं तहा तेसि, इहमेगेसि आहि ।। वही १.१.२.४ :
एवमेयाणि जंपंता, बाला पंडिअमाणिणो। निययानिययं संतं, अयाणंता अबुद्धिया ।।
३.