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पाप पदार्थ : टिप्पणी १
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(५) पापोत्पन्न दुःख स्वयंकृत हैं; दु:ख के समय क्षोभ न कर समभाव रहना चाहिए।
श्रमण भगवान महावीर ने कर्म-बन्ध को संसार का कारण बतलाया है। उन्होंने कहा है-"इस जगत में जो भी प्राणी हैं वे स्वयंकृत कर्मों से ही संसार-भ्रमण करते हैं। फल भोगे बिना संचित कर्मों से छुटकारा नहीं मिलता।"
इसी तरह उन्होंने कहा है : "सुचीर्ण कर्मों का फल शुभ होता है और दुश्चीर्ण कर्मों का फल अशुभ । शुभ आचरण से पुण्य का बंध होता है और उसका फल सुखरूप होता है। अशुभ आचरण से पाप का बंध होता है और उसका फल दुःख रूप होता है। जैसे सदाचार सफल होता है वैसे ही दुराचार भी सफल होता है।"
जिस तरह स्वयंकृत पुण्य के फल से मनुष्य वंचित नहीं रहता वैसे ही स्वयंकृत पाप का फल भी उसे भोगना पड़ता है। कहा है-"जिस तरह पापी चोर सेंध के मुंह में पकड़ा जाकर अपने ही दुष्कृत्यों से दुःख पाता है वैसे ही जीव इस लोक अथवा परलोक में पाप कर्मों के कारण दुःख पाता है। फल भोगे बिना कृतकर्मों से मुक्ति नहीं।" "सर्व प्राणी स्वकर्म कृत कर्मों से ही अव्यक्त दुःख से दुःखी होते हैं।"
जीव पूर्वकृत कर्मों के ही फल भोगते हैं-'वेदंति कम्माई पुरेकडाइं (सुय० १.५.२.१)।
१. उत्त० १४.१६ :
....संसारहेउं च वयंति बन्धं ।। २. सुयगडं १.२.१:४ :
जमिणं जगती पुढो जगा, कम्मेहिं लुप्पंति पाणिणो।
सयमेव कडेहिं गाहइ, णो तस्स मुच्चेज्जऽपुट्ठयं ।। ३. ओववाइय ५६ : ___ सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवंति, दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णफला भवंति, फुसइ पुण्णपावे,
पच्चा ति जीवा, सफले कल्लाणपावए । ४. (क) उत्त० १३.१० :
___सव्वं सुचिण्णं सफलं नराणं कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि। (ख) उत्त० ४.३ :
तेणे जहा सन्धिमुहे गहीए सकम्मुणा किच्चइ पावकारी।
एवं पया पेच्च इहं च लोए कडाण कम्माण न मुक्ख अत्थि।। ५. सुयगडं १.२.३ : १८ : ।
सव्वे सयकम्मकप्पिया, अवियत्तेण दुहेण पाणिणो। हिंडंति भयाउला सढा, जाइजरामरणेहिऽभिद्दुत्ता।।