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नव पदार्थ
निम्न दो प्रसंग इस विषय को और भी स्पष्ट कर देते हैं D.
एक बार गौतम ने पूछा - "भगवन् ! जीव गुरुत्वभाव को शीघ्र कैसे प्राप्त करता है ?” भगवान महावीर ने उत्तर दिया- " प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य से ।" गौतम ने पूछा - "जीव शीघ्र लघुत्व (हल्कापन ) कैसे पाता है ?" भगवान ने उत्तर दिया "प्राणातिपात विरमण यावत् मिथ्यादर्शनशल्य - विरमण से ।" इसके बाद गौतम को सम्बोधन कर भगवान ने कहा- "गौतम ! जीव-हिंसा आदि अठारह पापों से संसार को बढ़ाते, लम्बा करते और उसमें बार-बार भ्रमण करते हैं और इन अठारह पापों की निवृत्ति से जीव संसार को घटाते हैं, उसे ह्रस्व करते हैं और उसे लांघ जाते हैं। हल्कापन, संसार को घटाना, संसार को संक्षिप्त करना, संसार को लांघ जाना- चे चारों प्रशस्त हैं। भारीपन, संसार को बढ़ाना, लम्बा करना और उसमें भ्रमण करना ये चारों अप्रशस्त हैं । "
यही बात भगवती सूत्र १२.२ में भी कही गयी है। दूसरा प्रसंग इस प्रकार है : "भगवन् ! जीव शीघ्र भारी कैसे होता है और फिर हल्का कैसे होता है ?"
"गौतम ! यदि कोई मनुष्य एक बड़े, सूखे, छिद्र - रहित सम्पूर्ण तूंबे को दाम से कसकर उस पर मिट्टी का लेप करे और फिर धूप में सुखाकर दुबारा लेप करे और इस तरह आठ बार मिट्टी का लेप करके उसे गहरे पानी में डाले तो वह तूंबा डूबेगा या नहीं ? इसी तरह हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह यावत् मिथ्यादर्शनशल्य से अपनी आत्मा को वेष्टित करता हुआ मनुष्य शीघ्र ही कर्म-रज से भारी हो जाता है और उसकी • अधोगति होती है । गौतम ! जल में डूबे हुए तूंबे के ऊपर का तह जब गल कर अलग हो जाता है तो तूंबा ऊपर उठता है। इसी तरह एक-एक कर सारे तह गल जाते हैं तो हल्का होकर तूंबा पुनः पानी पर तैरने लगता है। इसी तरह हिंसा यावत् मिथ्यादर्शनशल्य इन अठारह पापों के त्याग से जीव कर्म-रजों के संस्कार से रहित होकर अपनी स्वाभाविकता को प्राप्त कर ऊर्ध्वगति पा अजरामर हो जाता है ।"
जीव, कर्म-हेतु और कर्म के परस्पर सम्बन्ध को पाँच कथनों से समझा जा सकता
है |
१. भगवती १.६
२.
नायाधम्मकहा: अ० ६
३. तेराद्वार: दृष्टान्त द्वार