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पाप पदार्थ : टिप्पणी ४
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भी दिवस और रात्रि का विभाग हो सके उतना उनका प्रकाश तो अनावृत्त रहता ही है; उसी प्रकार केवलज्ञानावरणीय से आत्मा का केवलज्ञान गुण चाहे जितनी प्रबलता के साथ आवृत हो, तो भी केवलज्ञान का अनन्तवाँ भाग अनावृत रहता है। केवलज्ञानावरणीय कर्म से जितना अंश अनावृत रह जाता है-उस अंश को भी आवृत करने वाली भिन्न-भिन्न शक्ति वाले मतिज्ञानावरणीय आदि चार दूसरे आवरण हैं। वे अंश को आवरण करने वाले होने से देशावरणीय कहलाते हैं।
आगम में कहा है : ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से जीव जानने योग्य को भी नहीं जानता, जानने का कामी होने पर भी नहीं जानता, जान कर भी नहीं जानता। ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से जीव आच्छादितज्ञान वाला होता है। जीव द्वारा बांधे हुए ज्ञानावरणीय कर्म के दस प्रकार के अनुभाव हैं : १. श्रोत्रावरण
२. श्रोत्र-विज्ञानावरण ३. नेत्रावरण
४. नेत्र-विज्ञानावरण ५. घ्राणावरण
६. घ्राण-विज्ञानावरण ७. रसावरण
८. रस-विज्ञानावरण ६. स्पर्शावरण
१०. स्पर्श-विज्ञानावरण ।" १. (क) स्थानांग-समवायांग पृ० ६४-६५
(ख) ठाणाङ्ग २.४.१०५ की टीका : देशं :- ज्ञानस्याऽऽभिनिबोधिकादिमावृणोतीति देशज्ञानावरणीयम्, सर्व ज्ञानं-केवलाख्यमावृणोतीति सर्वज्ञानावरणीयं, केवलावरणं हि आदित्यकल्पस्य केवलज्ञानरूपस्य जीवस्याच्छादकतया सान्द्रमेघवृन्दकल्पमिति तत्सर्वज्ञानावरणं, मत्याद्यावरणं तु. घनातिच्छादितादित्येषत्प्रभाकल्पस्य केवलज्ञानदेशस्य कटकुट्यादिरूपावरणतुल्यमिति
देशावरणमिति २. प्रज्ञापना २३.१ :
गोयमा ! णाणावरणिज्जस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणाम पप्प दसविधे अणुभावे पन्नत्ते, तंजहा-सोतावरणे, सोयविण्णाणावरणे, नेत्तावरणे, नेत्तविण्णाणावरणे, घाणावरणे, घाणविण्णाणावरणे, रसावरणे, रसविण्णाणावरणे, फासावरणे, फासविण्णाणावरणे जं वेदेति पोग्गलं वा पोग्गले वा पेग्गलपरिणामं वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणाम, तेसिं वा उदएणं जाणियव्वं ण जाणति, जाणिउकानेवि ण याणति, जाणित्तावि न याणति, उच्छन्नणाणी यावि भवति णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं