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पाप पदार्थ : टिप्पणी ४
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अकलङ्कदेव और सिद्धसेन के विचारों का पार्थक्य स्वयं स्पष्ट है। शुभ योग से ज्ञानावरणीय आदि घाति कर्मों का आस्रव मानना अथवा अशुभ कर्म का जघन्य अनुभाग बन्ध मानना श्वेताम्बर आगमिक विचारधारा से बहुत दूर पड़ता है। स्वामीजी ने आगमिक विचारधारा को अग्रस्थान देते हुए पुण्य का बन्ध शुभ योग से और पाप का बन्ध अशुभ योग से ही प्रतिपादित किया है। ४. ज्ञानावरणीय कर्म (गा० ७-८) :
जीव चेतन पदार्थ है। वह ज्ञान और दर्शन से जाना जाता है। ज्ञान और दर्शन दोनों का संग्राहक शब्द उपयोग है। इसीलिए आगम में कहा है-'जीवो उवओग लक्खणो" | ज्ञान को साकार उपयोग कहते हैं और दर्शन को निराकार उपयोग। जो उपयोग पदार्थों के विशेष धर्मों का-जाति, गुण, क्रिया आदि का बोधक होता है वह ज्ञानोपयोग है, जो पदार्थों के सामान्य धर्म का अर्थात् सत्ता मात्र का बोधक होता है उसे दर्शनोपयोग कहते हैं।
ज्ञान वह है जिससे वस्तु विशेष धर्मों के साथ जानी जाती हो। ऐसा ज्ञान जिसके द्वारा आच्छादित हो उस कर्म को ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं । आत्मा के स्वाभाविक गुण ज्ञान को आवृत करने वाले इस कर्म की कपड़े की पट्टी से तुलना की गयी है। जिस प्रकार आँखों पर कपड़े की पट्टी लगा लेने से चक्षु-ज्ञान रुक जाता है उसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म के प्रभाव से आत्मा को पदार्थों के जानने में रुकावट हो जाती है। ज्ञानावरणीय कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ-अवान्तर भेद पाँच हैं :
१. उत्त० २८.१० :
वत्तणालक्खणो कालो जीवो उवओगलक्खणो।
नाणेणं दंसणेणं च सुहेण य दुहेण य।। २. (क) प्रथम कर्मग्रन्थ ६ :
एसिं जं आवरणं पडुव्व चक्खुस्स तं तयावरणं । (ख) गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) : २१
पडपडिहारसिमज्जाहलिचित्तकुलालभंडयारीणं।
जह एदेसिं भावा तहवि य कम्मा मुणेयवा।। (ग) ठाणाङ्ग २.४.१०५ में उद्धृत :
सरउग्गयससिनिम्मलयरस्स जीवस्स छायणं जमिह।
णाणावरणं कम्मं पडोवमं होइ एवं तु।। ३. (क) उत्त० ३३.४ :
नाणावरणं पंचविहं सुयं आभिणिबोहियं ।
ओहिनाणं च तइयं मणनाणं चे केवलं ।। (ख) प्रज्ञापना २३.२