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नव पदार्थ
जैसे थोड़ा अपकार करने पर भी बहुत उपकार करने वाला भी उपकार करने वाला माना जाता है। कहा भी है-'विशुद्धि से शुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध होता है तथा संक्लेश से अशुभ प्रकृतियों का । जघन्य अनुभाग बन्ध का क्रम इससे उल्टा है, अर्थात् विशुद्धि से अशुभ का जघन्य और संक्लेश से शुभ का जघन्य बन्ध होता है।"
प्रस्तुत सूत्रों की मर्यादा पर विचार करते हुए पं० सुखलालजी लिखते हैं-"संक्लेश कषाय की मंदता के समय होने वाला योग शुभ और संक्लेश की तीव्रता के समय होने वाला योग अशुभ कहलाता है। जिस प्रकार अशुभ योग के समय प्रथम आदि गुणास्थानों में ज्ञानावरणीय आदि सारी पुण्य-पाप प्रकृतियों का यथासम्भव बन्ध होता है, वैसे ही छठे आदि गुणास्थानों में शुभ के समय भी सारी पुण्य-पाप प्रकृतियों का यथासम्भव बंध होता ही है। अतः प्रस्तुत विधान को मुख्यतया अनुभागबन्ध की अपेक्षा से समझना चाहिए।"
___ हालाँकि यह दलील अकलङ्कदेव की दलील से भिन्न है फिर भी निष्कर्ष एक ही है।
सिद्धसेनगणि अपनी टीका में लिखते हैं : "शुभ परिणाम के अनुबन्ध से शुभ योग होता है। पुण्य कर्म के ४२ भेद कहे गये हैं। शुभ योग उनके आस्रव का हेतु है। भाष्य के 'शुभो योगः पुण्यस्यास्रवो भवति' का आशय है-शुभ योग पुण्य का आस्रव है; पाप का नहीं। प्राणातिपात आदि से निवृत्ति, सत्यादि, धर्मध्यानादि शुभ योग हैं | भाष्यकार का यह निश्चित मत है कि शुभ योग पुण्य का ही आम्रव है पाप का नहीं। प्राणातिपात आदि अशुभ योग है। अशुभ योग ८२ प्रकार के पाप-कर्मों के आस्रव का हेतु है। जिस तरह शुभ योग पुण्य का ही आस्रव होता है, कभी भी पाप का नहीं; वैसे ही अशुभ योग पाप का ही आस्रव है, कभी भी पुण्य का नहीं। 'शुभ योग पुण्य कर्म का हेतु है'-इसके द्वारा-'वह पाप का हेतु नहीं' यह निवृत्ति प्रतिपादित होती है; 'शुभ योग निर्जरा का हेतु नहीं'-यह निषेध नहीं। शुभ योग पुण्य और निर्जरा का कारण है।"
१. तत्त्वार्थवार्तिक ६.३.१, २, ३, ७ . २. तत्त्वार्थसूत्र (गु. तृ. आ.) पृ० २५३ ३. तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ६.३, ६.४ सिद्धसेन : ' ....शुभो योगः पुण्यस्य, न जातुचित् पापस्यापीति, एतद् विवृणोति भाष्येण .... शुभो
योगः, स पुण्यस्यैवास्रवो न पापस्येत्यान्निश्चितमिदमिति मन्यमानो भाष्यकार .. उभयनियमश्चात्र न्याय्यः, शुभो योगः स पुणस्यैवास्रवो भवति, न कदाचित् पापस्य, . . .एवमशुभः पापस्यैव, न कदाचिच्छुभस्यास्रकः । शुभः पुण्यस्यैवेति च पापनिवृत्तिराख्यायते,
न तु निर्जराहेतुत्वनिषेधः । स हि पुण्यस्य निर्जरायाश्च कारणं शुभो योगः।