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रश्मियों को बाहर नहीं आने देते उसी प्रकार घाति कर्म आत्मा के स्वाभाविक गुणों को प्रकट नहीं होने देते ।
अघाति कर्म वे हैं जो आत्मा के प्रधान गुणों को हानि नहीं पहुँचाते, परन्तु आत्मा के सुख-दुःख, आयुष्य आदि की स्थितियाँ उत्पन्न करते हैं।
प्रत्येक आत्मा में सत्तारूप से आठ मुख्य गुण वर्तमान हैं पर कर्मावरण से वे प्रकट नहीं हो पाते। ये आठ गुण इस प्रकार हैं :
५. आत्मिक सुख
६.
७.
नव पदार्थ
१. अनन्त ज्ञान
२. अनन्त दर्शन
३. क्षायक सम्यक्त्व
४. अनन्त वीर्य
८. अगुरुलघुभाव
ज्ञानावरणीय कर्म जीव की अनन्त ज्ञान - शक्ति के प्रादुर्भाव को रोकता है। दर्शनावरणीय कर्म जीव की अनन्त दर्शन-शक्ति को प्रकट नहीं होने देता। मोहनीय कर्म आत्मा की सम्यक् श्रद्धा को रोकता है। अन्तराय कर्म अनन्त वीर्य को प्रगट नहीं होने देता ।
अटल अवगाहन
अमूर्तिकत्व और
१. गोम्मटसार (कर्मकाण्ड ) ६ :
वेदनीय कर्म अव्याबाध सुख को रोकता है। आयुष्य कर्म अटल अवगाहन - शाश्वत स्थिरता को नहीं होने देता। नाम कर्म अरूपी अवस्था नहीं होने देता । गोत्र कर्म अगुरुलघुभाव को रोकता है।
इस तरह अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र, अनन्त वीर्य - इन अनन्त चतुष्टय की घात करने वाले चार कर्म घाति कर्म हैं । अवशेष अघाति कर्म हैं ' ।
घाति कर्मों के क्षय से आत्मा सर्वज्ञ, सर्वदर्शी होता है और उसके अघाति कर्मों का बन्ध भी उसी भव में मुक्तावस्था के पहले समय में क्षय को प्राप्त होता है। इस तरह सर्व कर्मों का क्षय कर आत्मा मुक्त होता है। जिसके घाति कर्म सम्पूर्ण क्षय को प्राप्त नहीं होते उसके अघाति कर्म भी नष्ट नहीं होते और उस जीव को संसार भ्रमण करते रहना पड़ता है।
आवरणमोहविग्घं घादी जीवगुणघादणत्तादो ।
आउगणामं गोदं वेयणियं तह अघादित्ति ।।