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नव पदार्थ
इसकी आलोचना इस रुप में मिलती है :
"कर्म की चिन्ता से रहित उन क्रियावादियों का दर्शन संसार को ही बढ़ाने वाला है। जो मन से प्रद्वेष करता है, उसका चित्त विशुद्ध नहीं कहा जा सकता। उसके कर्म का बंध नहीं होता-ऐसा कहना अतथ्य है, क्योंकि उसका आचरण संवृत नहीं है। पूर्वोक्त दृष्टि के कारण सुख और गौरव में आसक्त मनुष्य अपने दर्शन को शरणदाता मान पाप का सेवन करते हैं। जिस प्रकार जन्मांध पुरुष छिद्रवाली नौका पर चढ़कर पार जाने की इच्छा करता है परन्तु मध्य में ही डूब जाता है, उसी प्रकार मिथ्या दृष्टि अनार्य श्रमण संसार से पार जाना चाहते हैं परन्तु वे संसार में ही पर्यटन करते हैं।"
३. घाति और अघाति कर्म (गा० १-५) :
जीवों के कर्म अनादि काल से हैं। जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि कालीन है। पहले जीव और फिर कर्म अथवा पहले कर्म और फिर जीव ऐसा क्रम नहीं है। जीव ने कर्मों को उत्पन्न नहीं किया और न कर्मों ने जीव को उत्पन्न किया है क्योंकि जीव और कर्म इन दोनों का ही आदि नहीं है। अनादि जीव बद्ध कर्मों के हेतु को पाकर अनेक प्रकार के भावों में परिणमन करता है। इस परिणमन से उसको पुण्य-पाप कर्मों का बंध होता रहता है। विषय-कषायों से रागी-मोही जीव के जीव प्रदेशों में जो परमाणु लगते हैं, बंधते हैं उन परमाणुओं के स्कंधों को कर्म कहते हैं।
१.
सुयगडं १.१.२.२४, ३०-३२ : अहावरं पुरक्खायं, किरियावाइदरिसणं। कम्मचिंतापणट्ठाणं, संसारस्स पवड्ढणं ।। इच्चेयाहि य दिट्ठीहिं, सातागारवणिस्सिया। सरणंति मन्नमाणा, सेवंती पावगं जणा।। जहा अस्साविणिं णावं, जाइअंधो दुरूहिया। इच्छई पारमागंतुं, अंतरा य विसीयई ।। एवं तु समणा एगे, मिच्छदिट्ठी अणारिया। संसारपारकंखी ते, संसारं अणुपरियट्टति।। परमात्मप्रकाश १.५६, ६०, ६२ : . जीवहँ कम्मु अणाइ जिय जणियउ कम्मु ण तेण। कम्में जीउ वि जणिउ णवि दोहिं वि आइ ण जेण।। । एहु ववहारें जीवडउ हेउ लहेविणु कम्मु। बहुविह-भावें परिणवइ तेण जि धम्मु अहम्म।। विसय-कसायहिँ रंगियहँ जे अणुया लग्गति। जीव-पएसहँ मोहियहँ ते जिण कम्म भणंति।।
२.