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पाप पदार्थ : टिप्पणी २
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अमाय्येव हि भावेन माय्येव नु भवेत् क्वचित् ।
पश्येत् स्वपरयोर्यत्र सानुबन्धं हितोदयम्' ।। इस भावनावाद, परिणामवाद, हेतुवाद अथवा आशयवाद के विषय में पूर्व में काफी प्रकाश डाला जा चुका है । आगम में भावनावाद का उल्लेख परवाद के रूप में है। इसकी तीव्र आलोचना भी की गई है।
_ भावनावादी मानते थे-"जो जानता हुआ मन से हिंसा करता है पर काया से हिंसा नहीं करता, अथवा नहीं जानता हुआ केवल काया से हिंसा करता है, वह स्पर्श मात्र कर्म-फल का अनुभव करता है क्योंकि यह सावध कर्म अव्यक्त है। तीन आदान हैं, जिनसे पाप किया जाता है-स्वयं करना, नौकरादि अन्य से कराना और मन से भला जानना; परन्तु भाव विशुद्धि से मनुष्य निर्वाण को प्राप्त करता है। जैसे विपत्ति के समय यदि असंयमी पिता पुत्र को मारकर, उसका भोजन करे तो वह पाप का भागी नहीं होता वैसे ही विशुद्ध मेधावी भाव विशुद्धि के कारण पाप करते हुए भी कर्म से लिप्त नहीं होता।"
१. नवतत्त्वप्रकरणम् (सुमङ्गला टीका) : पापतत्त्वम् पृ० ५५-५६ :
अप्रशस्ताशयेन सेव्यमानाः पापस्थानका ज्ञानाऽऽवरणादिपापप्रकृतीनां बन्धहेतव उक्ताः, कतिपयेषु रागादिषु पापस्थानकेषु सेव्यमानेषु प्रशस्ताशयेन पुन्यबन्धोऽपि भवति ..... अप्रशस्ता माया यद्रव्यादिकांक्षया परवञ्चना वणिजामिन्द्रजालिकादीनां वा, प्रशस्ता तु व्याधानां मृगापलपने व्याधिमतां कटुकौषधादिपाने दीक्षोपस्थितस्य विघ्नकर पित्रादीनां पुरः कुस्वप्नो मया दृष्टोऽल्पाऽऽयुष्क सूचक इत्यादिका स्वपरहितहेतुः स्वपितुःसम्यग्
यत्याचारग्रहणार्थ श्रीआर्यरक्षितप्रयुक्तमायेव । २. पुण्य पदार्थ (ढाल : २) टिप्पणी ३० पृ० २३६-२४६
सुयगडं १.१.२ : २५-२६ : जाणं काएणऽणाउट्टी, अबुहो जं च हिंसति। पुट्ठो संवेदइ परं, अवियत्तं खु सावज्ज।। संतिमे तउ आयाणा, जेहिं कीरइ पावगं। अभिकम्मा य पेसा य, मणसा अणुजाणिया।। एते उ तउ आयाणा, जेहिं कीरइ पावगं। एवं भावविसोहीए, निव्वाणमभिगच्छइ।। पुत्तं पिया समारम्भ, आहारेज्ज असंजए। भुंजमाणो य मेहावी, कम्मणा नोवलिप्पइ।। मणसा जे पउस्संति, चित्तं तेसिं ण विज्जइ। अणवज्जमतहं तेसिं, ण ते संवुडचारिणो।।