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पाप पदार्थ : टिप्पणी ३
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स्वामीजी ने गाथा १ से ४२ में चार घनघाति कर्मों के स्वरूप पर प्रकाश डाला है और ४४ से ५७ तक की गाथाओं में अघाति कर्मों के स्वरूप पर।
घाति-अघाति दोनों प्रकार के पाप-कर्मों के बंध-हेतु प्रधानतः अशुभ योग हैं। उमास्वाति ने योगों के कार्य-भेद को बताते हुए तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय ६ में कहा है :
शुभः पुण्यस्य । ३।
अशुभः पापस्य । ४। इन दो सूत्रों के स्थान में दिगम्बर परम्परा के पाठ में एक ही सूत्र मिलता है :
___ शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य ।। ३।। दोनों परम्पराओं के शाब्दिक अर्थ में भेद नहीं। दोनों के अनुसार मन, वचन और काय के शुभ योग पुण्य के आस्रव हैं और अशुभ योग पाप के । पर व्याख्या में विशेष अन्तर दृष्टिगोचर होता है।
अकलङ्कदेव तत्त्वार्थवार्त्तिक में लिखते हैं : "हिंसा, चोरी, मैथुन आदि अशुभ काययोग हैं । असत्य बोलना, कठोर बोलना, आदि अशुभ वचनयोग हैं। हिंसक विचार, ईर्ष्या, असूया आदि अशुभ मनोयोग हैं । इत्यादि अनन्त प्रकार के अशुभ योग से भिन्न शुभ योग भी अनन्त प्रकार का है। अहिंसा, अचौर्य, ब्रह्मचर्य आदि शुभ काययोग हैं। सत्य, हित, मित बोलना शुभ वाग्योग है। अर्हन्त-भक्ति, तप की रुचि, श्रुत का विनय आदि शुभ मनोयोग हैं।
"शुभ परिणामपूर्वक होने वाला योग शुभ योग है तथा अशुभ परिणाम से होने वाला अशुभ योग है। शुभ-अशुभ कर्म का कारण होने से योग में शुभत्व या अशुभत्व नहीं है, क्योंकि शुभ योग भी ज्ञानावरण आदि अशुभ कर्मों के बन्ध में भी कारण होता है। 'शुभ पुण्यस्य' यह निर्देश अघातिया कर्मों में जो पुण्य और पाप हैं, उनकी अपेक्षा से है। अथवा 'शुभ योग पुण्य का ही कारण है'-ऐसा अर्थ नहीं है पर 'शुभ योग ही पुण्य का कारण है'- ऐसा अर्थ है। अतः शुभ योग पाप का भी हेतु हो सकता है। पुनः सूत्रों का अर्थ अनुभाग-बंध की अपेक्षा लगाना चाहिए अन्यथा वे दोनों निरर्थक हो जायेंगे क्योंकि कहा है-'आयु और गति को छोड़ कर शेष कर्मों की उत्कृष्ट स्थितियों का बन्ध उत्कृष्ट संक्लेश से होता है और जघन्य स्थितिबंध मन्द संक्लेश से।' अनुभाग बन्ध प्रधान है। वही सुख-दुःख रूप फल का निमित्त होता है। उत्कृष्ट शुभ परिणाम अशुभ कर्म के जघन्य अनुभाग के भी कारण होते हैं पर बहुत शुभ के कारण होने से 'शुभः पुण्यस्य' सार्थक है।