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नव पदार्थ
(१) पाप-कर्म और पाप की करनी एक दूसरे से भिन्न है :
'ठाणाङ्ग' में अठारह पाप कहे हैं-(१) प्राणातिपात, (२) मृषावाद, (३) अदत्तादान, (४) मैथुन, (५) परिग्रह, (६) क्रोध, (७) मान, (८) माया, (६) लोभ, (१०) राग, (११) द्वेष, (१२) कलह, (१३) अभ्याख्यान, (१४) पैशुन्य, (१५) परपरिवाद, (१६) रति-अरति, (१७) माया-मृषा और (१८) मिथ्यादर्शनशल्य।'
ये भेद वास्तव में पाप-पदार्थ के नहीं हैं परन्तु पाप-पदार्थ के बन्ध-हेतुओं के हैं। प्राणातिपात आदि पाप-पदार्थ के निमित्त कारण हैं । अतः उपचार से प्राणातिपात आदि क्रियाओं को पाप कहा है।
____एक बार गौतम ने पूछा-"भगवन् ! प्राणातिपात, मृषावाद यावत् मिथ्यादर्शनशल्य कितने वर्ण, कितने गंध, कितने रस और कितने स्पर्श वाले हैं ?" भगवान ने उत्तर दिया-"वे पाँच वर्ण, दो गंध, पाँच रस और चार स्पर्श वाले होते हैं।"
उपर्युक्त वार्तालाप से प्राणातिपात आदि पौद्गलिक मालूम देते हैं; अन्यथा उनमें वर्णादि होने का कथन नहीं मिलता।
प्रश्न उठता है-प्राणातिपात आदि एक ओर वर्णादि युक्त पुद्कल कहे गये हैं और दूसरी ओर क्रिया रूप बतलाये गये हैं, इसका क्या कारण है ?
श्रीमद् जयाचार्य ने इस प्रश्न का उत्तर अपनी 'झीणी चर्चा' नामक कृति की बाईसवीं ढाल में दिया है। वे लिखते हैं-"भगवती सूत्र में प्राणातिपात आदि के वर्णादि
१. ठाणाङ्ग : १.४८ :
एगे पाणतिवाए जाव एगे परिग्गहे। एगे कोधे जाव लोभे । एगे पेज्जे एगे दोसे जाव एगे
परपरिवाए। एगा अरतिरती। एगे मायामोसे एगे मिच्छादंसणसल्ले। २. भग० : १२.५
अहं भंते ! पाणाइवाए, मुसावाए, अदिन्नादाणे, मेहुणे, परिग्गहे-एस णं कतिवन्ने, कतिगंधे, कतिरसे, कतिफासे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचवन्ने, दुगंधे, पंचरसे, चउफासे, पणत्ते। अह भंते ! कोहे .... एस णं कतिवन्ने जाव-कतिफासे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचवन्ने, दुगंधे, पंचरसे, चउफासे पण्णत्ते। अह भंते ! माणे .... एस णं कतिवन्ने ४ ? गोयमा ! पंचवन्ने, जहा कोहे तहेव। अह भंते ! माया .... एस णं कतिवन्ने ४ पन्नत्ते ? गोयमा ! पंचवन्ने, जहेव कोहे । अह भंते ! लोभे ... एस णं कतिवन्ने ४ ? जहेव कोहे। अह भंते ! पेज्जे, दोसे, कलहे, जाव मिच्छादसणसल्ले-एस णं कतिवन्ने ४ ? जहेव कोहे तहेव चउफासे।