________________
पाप पदार्थ : टिप्पणी २
२६१
असंयत लोगों का अपने आप को धार्मिक श्रमण कहना भी सहेतुक नहीं होता' |"
ठीक इसी तर्क पर उन्होंने उपर्युक्त अन्य दो वादों का खण्डन किया।
पहली दृष्टि जैन-दृष्टि का एक अंश है। बुद्ध का स्वयं का मत इस प्रकार था : "जो मनुष्य मन, वचन और काय से संवृत होता है, उसके दुःख का कारण नहीं रहता; उसके दुःख आना संभव नहीं ।“ भगवान महावीर का कथन था : “कोई मनुष्य संवृत हो जाय तो भी पूर्वकृत पाप-कर्म का विपाक बाकी हो तो उसे दुःख भोगना पड़ता है।"
ठाणाङ्ग का निम्न संवाद भी भगवान महावीर के विचारों के अन्य पक्ष को प्रकट करता है।
"हे भदन्त ! अन्यतीर्थिक, कर्म कैसे भोगने पड़ते हैं इस विषय में हमसे विवाद करते हैं। "किये हुए कर्म भोगने पड़ते हैं'-इस विषय में उनका प्रश्न नहीं है। 'किए हुए कर्म होने पर भी भोगने नहीं पड़ते'-इस विषय में भी उनका प्रश्न नहीं है। 'नहीं किया हुआ कर्म नहीं भोगना पड़ता'- ऐसा भी उनका विवाद नहीं है। परन्तु वे कहते हैं-'नहीं किये हुए भी कर्म भोगने पड़ते हैं-जीव ने दुःखदायक कर्म न किया हो और नहीं करता हो तो भी दुःख भोगना पड़ता है। वे कहते हैं-इस बात को तुम लोग निग्रंथ क्यों नहीं मानते ?"
भगवान बोले "हे श्रमण निग्रंथो ! जो ऐसा कहते हैं वे मिथ्या कहते हैं। मेरी प्ररूपणा तो ऐसी है-दुःखदायक कर्म जिन जीवों ने किया है या जो करते हैं, उन जीवों को ही दुःख की वेदना होती है, दूसरों को नहीं।"
२. पाप-कर्म और पाप की करनी (दो० ५) : .
इस विषय में दो बातें मुख्य रूप से चर्चनीय हैं: (१) पाप-कर्म और पाप की करनी भिन्न-भिन्न हैं। (२) आशय से ही योग शुभ नहीं होता। नीचे इन पहलुओं पर क्रमशः विचार किया जा रहा है।
१. . अंगुत्तरनिकाय ३.६१ २. वही ४.१६५ ३. (क) ठाणाङ्ग ३:२.१६७
अहं पुण ...... एवं परूवेमि-किच्चं दुक्खं फुस्सं दुक्खं कज्जमाणकडं
दुक्खं कटु २ पाणा भूया जीवा सत्ता वेयणं वेयंतित्ति (ख) स्थानांग-समवायांग पृ० ६०-६१