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पाप पदार्थ : टिप्पणी १
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स्वामीजी कहते हैं-"जो दुःख स्वयंकृत है उसका फल भोगते समय दुःख नहीं करना चाहिये। इस दुःख से मुक्त होने का रास्ता दुःख, शोक, संताप करना नहीं पर यह सोचना है कि मैंने जो किया यह उसीका फल है। मैं नहीं करूँगा तो आगे मुझे दुःख नहीं होगा। अतः मैं आज से दुष्कृत्य नही करूँगा।" "किये हुए कर्म से छुटकारा या तो उन्हें भोगने से होता है अथवा तप द्वारा उनका क्षय करने से।
___ आगम में कहा है-" प्रत्येक मनुष्य सोचे-मैं ही दुःखी नहीं हूँ, संसार में प्राणी प्रायः दुःखी ही हैं । दुःखों से स्पृष्ट होने पर क्रोधादि रहित हो उन्हें समभाव पूर्वक सहन करे-मन में दुःख न माने ।” ___जो मनुष्य दुःख उत्पन्न होने पर शोक-विह्वल होता है, वह मोह-ग्रस्त हो कामभोग की लालसा से पाप और आरम्भ में प्रवृत्त होता है और अधिक दुःख का संचय करता है।
मनुष्य सुख के लिये व्याकुल न हो-'सायं नो परिदेवए' (उत्त० २.८)। जो पाप-दृष्टि-सुख-पिपासु होता है वह आत्मार्थ का नाश करता है-'पावदिट्ठी विहम्मई' (उत्त० २.२२)। यदि कोई मनुष्य मारे तो मनुष्य सोचे-"मेरे जीव का कोई विनाश नहीं कर सकता।" "मनुष्य अदीन-वृत्ति पूर्वक अपनी प्रज्ञा को स्थिर रखे । दुःख पड़ने पर उन्हें समभाव से सहन करे ।" "जो दुष्कर को करते हैं और दुःसह को सहते हैं, उनमें से कई देवलोक को जाते हैं और कई नीरज हो सिद्धि को प्राप्त करते हैं।"
१. दशवैकालिक : प्रथम चूलिका १८ :
पावाणं च खलु भो कडाणं कम्माणं पुव्विं दुच्चिण्णाणं दुप्पडिक्कन्ताणं वेयइत्ता मोक्खो,
नत्थि अवेयइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता। २. सुय० १.२.१.१३ :
णवि ता अहमेव लुप्पये, लुप्पंती लोअंसि पाणिणो।
एवं सहिएहिं पासए, अणिहे से पुढे अहियासए।। ३. उत्त० २.२७ : .
नत्थि जीवस्स नासु त्ति एवं पेहेज्ज संजए।। ४. उत्त० २.३२ :
अदीणो थावए पन्नं पुट्ठो तत्थहियासए।। ५. दश० ३.१४ :
दुक्कराई करेत्ताणं दुस्सहाइं सहेत्तु य। के एत्थ देवलोगेसु केई सिज्झन्ति नीरया।।