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नव पदार्थ
ही होते हैं; पर जीव जैसे ही उन कर्म-पुद्गलों को ग्रहण करता है अध्यवसाय रूप परिणाम और आश्रय की विशेषता के कारण उन कर्म-पुद्गलों को शुभ या अशुभ रूप परिणत कर देता है। जीव का जैसा शुभ या अशुभ अध्यवसायरूप परिणाम होता है उसके आधार से ग्रहण काल में ही कर्म में शुभत्व अथवा अशुभत्व उत्पन्न होता है और कर्म के आश्रयभूत जीव का ऐसा एक स्वभाव विशेष है कि जिसके कारण उस प्रकार कर्म का परिणमन करता हुआ ही वह उसे ग्रहण करता है। पुनः कर्म का भी ऐसा स्वभाव विशेष है कि शुभ-अशुभ अध्यवसाय वाले जीव द्वारा शुभाशुभ परिणाम को प्राप्त होता हुआ ही गृहीत होता है।
आहार समान होने पर भी परिणाम और आश्रय की विशेषता के कारण उसके विभिन्न परिणाम देखे जाते हैं; जैसे कि गाय और सर्प को एक ही आहार देने पर भी गाय जो कुछ खाती है वह दूध रूप में परिणमित होता है और सर्प जो कुछ खाता है उसे विष रूप में परिणमन करता है। जिस प्रकार खाद्य में उस उस आश्रय में जाकर उस उस रूप में परिणत होने का परिणाम-स्वभाव विशेष है उसी तरह खाद्य का उपयोग करने वाले आश्रय में भी उस उस वस्तु को उस उस रूप में परिणत करने का सामर्थ्य विशेष है। यही बात गृहीत कर्म और ग्रहण करने वाले जीव के विषय में समझनी चाहिए। पुनः एक ही शरीर में अविशिष्ट अर्थात् एकरूप आहार लेने पर भी उसमें से सार और असार ऐसे दोनों परिणाम तत्काल हो जाते हैं। जिस प्रकार शरीर खाये हुए भोजन को रस, रक्त और मांस रूप सार तत्त्व में और मलमूत्र जैसे असार तत्त्व में परिणत कर देता है उसी तरह एक ही जीव गृहीत साधारण कर्म को अपने शुभाशुभ परिणामों द्वारा पुण्य और पाप रूप परिणत कर देता है।
१. विशेषावश्यकभाष्य गा० १६४१-४५
गेण्हति तज्जोगं चिय रेणुं पुरिसो जधा कतब्भंगो। एगक्खेत्तोगाढं जीवो सव्वप्पदेसेहिं।। अविसिट्ठपोग्गलघणे लोए थूलतणुकम्मपविभागो। जुज्जेज्ज गहणकाले सुभासुभविवेचणं कत्तो।। अविसिट्ठ चिय तं सो परिणामाऽऽसयभावतो खिप्पं । कुरुते सुभमसुभं वा गहणे जीवो जधाऽऽहारं ।। परिणामाऽऽसयवसतो घेणूये जधा पयो विसमहिस्स। तुल्लो वि तदाहारो तध पुण्णापुण्णपरिणामो।। जध वेगसरीरम्मि वि सारासारपरिणामतामेति। अविसिट्ठो आहारो तध कम्मसुभासुभविभागो।।