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पुण्य पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी ३१
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"वे पुण्य अच्छे नहीं जो जीव को राज्य देकर शीघ्र ही दुःख उत्पन्न करें।" "यद्यपि असद्भूत व्यवहारनय से द्रव्यपुण्य और द्रव्यपाप ये दोनों एक दूसरे से भिन्न हैं; और अशुद्धनिश्चयनय से भावपुण्य भावपाप ये दोनों भी आपस में भिन्न हैं, तो भी शुद्ध निश्चयनय से पुण्य-पाप रहित शुद्धात्मा से दोनों ही भिन्न और बंधरूप होने से दोनों समान ही हैं। जैसे कि सोने की बेड़ी और लोहे की बेड़ी ये दोनों ही बन्ध के कारण होने से समान हैं। "पुण्य से घर में धन होता है; धन से मद, मद से मतिमोह (बुद्धिभ्रम) और मतिमोह से पाप होता है; इसलिए ऐसा पुण्य हमारे न होवे ।" ___काम-भोगों की इच्छा-निदान के दुष्परिणाम का हृदयस्पर्शी वर्णन 'दशाश्रुतस्कंध'' में प्राप्त है। वहाँ सुचरित्र-तप, नियम और ब्रह्मचर्य वास के बदले में मानुषिक काम-भोगों की कामना करने वाले श्रमण-श्रमणियों के विषय में कहा गया है :
... "ऐसे साधु या साध्वी जब पुनः मनुष्य-भव प्राप्त करते हैं तब उनमें से कई तथारूप श्रमण-माहन द्वारा दोनों समय केवली-प्रतिपादित धर्म सुनाये जाने पर भी उसे सुनें, यह सम्भव नहीं। वे केवली प्रतिपादित धर्म सुनने के अयोग्य होते हैं। वे महा इच्छावाले, महा आरम्भी, महा परिग्रही, अधार्मिक और दक्षिणगामी नैरयिक होते हैं तथा आगामी जन्म में दुर्लभबोधि होते हैं।
__"कोई धर्म को सुन भी ले पर यह संभव नहीं कि वह धर्म पर श्रद्धा कर सके, विश्वास कर सके, उस पर रुचि कर सके। सुनने पर भी वह धर्म पर श्रद्धा करने में असमर्थ होता है। वह महा इच्छावाला, महा आरम्भी, महा परिग्रही, और अधार्मिक होता है। वह दक्षिणगामी नैरयिक और दूसरे जन्म में दुर्लभबोधि होता है। १. परमात्मप्रकाश २.५७
मं पुणु पुण्णइँ भल्लाइँ णाणिय ताइँ भणंति।
जीवहँ रज्जइँ देवि लहु दुक्खइँ जाइँ जणंति।। २. वही २.५५ की टीका :
यद्यप्यसद्भूतव्यवहारेण द्रव्यपुण्यपापे परस्परभिन्ने भवतस्तथैवाशुद्धनिश्चयेन भावपुण्यपापे भिन्ने भवतस्तथापि शुद्धनिश्चयनयेन पुण्यपापरहितशुद्धात्मनः सकाशाद्विलक्षणे
सुवर्णलोहनिगलवबन्धं प्रति समाने एव भवतः । ३. वही २.६० :
पुण्णेण होइ विहवो विहवेण मआं मएण मइ-मोहो।
मइ-मोहेण य पावं ता पुण्णं अम्ह मा होउ।। ४. दशा : १०