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. नव पदार्थ
(३) पाप-कर्म पुद्गल, चतु:स्पर्शी, रूपी पदार्थ है
पुद्गल की आठ मुख्य वर्गणाएँ हैं। (१) औदारिक वर्गणा-औदारिक शरीर-निर्माण के योग्य पुद्गल-समूह। (२) वैक्रिय वर्गणा-वैक्रिय शरीर-निर्माण के योग्य पुद्गल-समूह । (३) आहारक वर्गणा-आहारक शरीर-निर्माण के योग्य पुद्गल-समूह । (४) तैजस वर्गणा-तैजस शरीर-निर्माण के योग्य पुद्गल-समूह । (५) कार्मण वर्गणा-कार्मण शरीर-निर्माण के योग्य पुद्गल-समूह । (६) श्वासोच्छ्वास वर्गणा-आन-प्राण योग्य पुद्गल-समूह । (७) वचन वर्गणा-भाषा के योग्य पुद्गल-समूह । (८) मन वर्गणा-मन के योग्य पुद्गल-समूह । __ पाप और पुण्य दोनों कर्म-वर्गणा के पुद्गल हैं। दोनों चतुःस्पर्शी हैं। कर्कश, मृद्, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रुक्ष इन आठ स्पर्शों में से कर्म में अन्तिम चार स्पर्श होते हैं। इन स्पर्शों के साथ उनमें वर्ण, गंध, रस भी होते हैं। अतः वे रूपी या मूर्त कहलाते हैं। पुण्य कर्म शोभन वर्ण, गन्ध, रस और रांश युक्त होते हैं। पाप कर्म अशोभन वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श युक्त।
पुण्य को सुख और पाप को दुःख का कारण कहा है अतः यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है। यह प्रसिद्ध नियम है कि कार्य के अनुरूप ही कारण होता है। सुख और दुःख आत्मा के परिणाम होने से अरूपी हैं अतः कर्म भी अरूपी होना चाहिए। क्योंकि सुख और दुःख कार्य हैं तथा पुण्य और पाप-कर्म उनके कारण।
'कार्यानुरूप कारण होना चाहिए-इसका अर्थ यह नहीं कि कारण सर्वथा अनुरूप हो । कार्य से कारण सर्वथा अनुरूप नहीं होता और उसी प्रकार सर्वथा अननुरूप-भिन्न भी नहीं होता। दोनों को सर्वथा अनुरूप मानने से दोनों के सर्व धर्मों को समान मानना होता है। वैसा होने से कार्य कारण का भेद नहीं रह पाता। दोनों कारण बन जाते हैं अथवा दोनों कार्यं बन जाते हैं। यदि दोनों को सर्वथा भिन्न माना जाय तो कारण अथवा कार्य दोनों में से किसी को वस्तु मानने से दूसरे को अवस्तु मानना होगा। दोनों को वस्तु मानने से उनका एकान्तिक भेद सम्भव नहीं होगा। अतः कार्य कारण की सर्वथा अनुरूपता अथवा अननुरूपता नहीं परन्तु कुछ अंशों में समानता और कुछ अंशों में असमानता होती है।