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नव पदार्थ
कोई कारण होना चाहिए क्योंकि वह कार्य है जैसे घट । देहादि का जो कारण है वही
कर्म है ।
कर्म पुण्य और पाप दो प्रकार का मानना चाहिए, कारण शुभ देहादि कार्य से उसके कारणभूत पुण्य-कर्म का और अशुभ देहादि कार्य से उसके कारणभूत पाप-कर्म का अस्तित्व सिद्ध होता है। पुनः शुभ क्रियारूप कारण से शुभ कर्म पुण्य की निष्पत्ति होती है और अशुभ क्रियारूप कारण से अशुभ कर्म पाप की निष्पत्ति होती है। इससे भी कर्म के पुण्य और पाप ऐसे दो भेद स्वभाव से ही भिन्नजातीय सिद्ध होते हैं ।
प्रश्न हो सकता है कि देहादि के कारण माता-पितादि प्रत्यक्ष हैं तो फिर अदृष्ट कर्म क्यों माना जाय ? इसका उत्तर यह है कि यद्यपि दृष्ट कारण माता-पिता ही होते हैं फिर भी एक पुत्र सुन्दर देहयुक्त और दूसरा कुरूप देखा जाता है अतः दृष्ट कारण माता-पिता से भिन्न अदृष्ट कारण पुण्य और पाप कर्म मानने चाहिए। कहा है- " दृष्ट हेतु होने पर भी कार्यविशेष असंभव हो तो कुलाल के यत्न की तरह एक अन्य अदृष्ट हेतु का अनुमान होता है। और वह कर्त्ता का शुभ या अशुभ कर्म है" ।
दूसरी तरह से भी कर्म के पुण्य और पाप ये दो भेद सिद्ध होते हैं । सुख और दुःख दोनों कार्य हैं। उनके कारण भी क्रमशः उनके अनुरूप दो होने चाहिए। जिस प्रकार घट का अनुरूप कारण मिट्टी के परमाणु हैं और पट का अनुरूप कारण तन्तु हैं, उसी प्रकार सुख के अनुरूप कारण पुण्य-कर्म और दुःख के अनुरूप कारण पाप-कर्म का पार्थक्य मानना होगा' ।
(२) पाप कर्म की परिभाषा
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आचार्य पूज्यपाद ने पाप की परिभाषा इस प्रकार दी है - 'पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेनेति वा पुण्यम् । पाति रक्षति आत्मानं शुभादिति पापम्' ।' जो आत्मा को पवित्र करे प्रसन्न करे वह पुण्य अथवा जिसके द्वारा आत्मा पवित्र हो - प्रसन्न हो वह पुण्य है । पुण्य का उलटा पाप है। जो आत्मा को शुभ से बचाता है- आत्मा में शुभ परिणाम नहीं होने देता वह पाप है |
१. (क) विशेषावश्यकभाष्य गा० १६१२-२१
(ख) गणधरवाद पृ० १३६ - १३६
२.
सर्वार्थसिद्धि ६.३ की टीका
३. तत्त्वार्थवार्तिक ६.३.५ : तत्प्रतिद्वन्द्विरूपं पापम् । ... पाति रक्षति आत्मानम् अस्माच्छुभ परिणामादिति पापाभिधानम्