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प्राधान्य मानना चाहिये । अध्यवसाय स्थानों में शुभ अथवा अशुभ ये दो भेद हैं पर शुभाशुभ ऐसा तृतीय भेद नहीं मिलता। अतः अध्यवसाय जब शुभ होता है तब पुण्य कर्म और जब अशुभ होता है तब पाप कर्म का बंध होता है। शुभाशुभ रूप कोई अध्यवसाय नहीं कि जिससे शुभाशुभ रूप कर्म का बंध संभव हो अतः पुण्य और पाप स्वतंत्र ही मानने चाहिए संकीर्ण मिश्रित नहीं | प्रश्न हो सकता है भावयोग को शुभाशुभ उभयरूप न मानने का क्या कारण है ? इसका उत्तर यह है - भावयोग ध्यान और लेश्यारूप है । और ध्यान धर्म अथवा शुक्ल शुभ या आर्त अथवा रौद्र अशुभ ही एक समय में होता है, पर वह शुभाशुभ हो ही नहीं सकता। ध्यानविरति होने पर लेश्या भी तैजसादि कोई एक शुभ अथवा कापोती आदि कोई एक अशुभ होती है; पर उभय रूप लेश्या नहीं होती । अतः ध्यान और लेश्यारूप भावयोग भी या तो शुभ अथवा अशुभ एक समय में होता है । अतः भावयोग के निमित्त से बंधने वाले कर्म भी पुण्यरूप शुभ अथवा पापरूप अशुभ ही होता है। अतः पाप और पुण्य को स्वतंत्र मानना चाहिए' ।
नव पदार्थ.
यदि उन्हें संकीर्ण माना जाय तो सर्व जीवों को उसका कार्य मिश्ररूप में अनुभव में आना चाहिए, अर्थात् केवल सुख या केवल दुःख का अनुभव नहीं होना चाहिए, सदा सुख-दुःख मिश्रित रूप में अनुभव में आना चाहिए। पर ऐसा नहीं होता। देवों में केवल सुख का ही विशेष रूप से अनुभव होता है और नारकों में केवल दुःख का विशेष अनुभव होता है। संकीर्ण कारण से उत्पन्न कार्य में भी संकीर्णता ही होनी चाहिए। ऐसा संभव नहीं कि जिसका संकर हो उसमें से कोई एक ही उत्कट रूप से कार्य में उत्पन्न हो और दूसरा कोई कार्य उत्पन्न न करे । अतः सुख के अतिशय का जो निमित्त हो उसे, दुःख के अतिशय में जो निमित्त हो उससे भिन्न ही मानना चाहिए। पुण्य और पाप सर्वथा संकर ही हों तो एक की वृद्धि होने से दूसरे की भी वृद्धि होनी चाहिए | पुण्यांश की वृद्धि
१. विशेषावश्यकभाष्य गा० १६३५-३७ :
कम्मं जोगणिमित्तं सुभोऽसुभो वा स एगसमयम्मि । होज्ज ण तूभयरूवो कम्मं वि तओ तदणुरूवं । । णणु मण-इ-काययोगा सुभासुभा वि समयम्मि दीसंति । दव्वम्मि मीसभावो भवेज्ज ण तु भावकरणम्मि ।। झणं सुभमभं वा ण तु मीसं जं च झाणविरमे वि । लेसा सुभासुभा वा सुभमसुभं वा तओ कम्मं ।।