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नव पदार्थ
लिए पाप का प्रकर्ष-अपकर्ष मानना आवश्यक है। पुण्य के अपकर्ष से इष्ट साधनों का अपकर्ष हो सकता है, पर अनिष्ट साधनों की वृद्धि नहीं हो सकती। उसका स्वतन्त्र कारण पाप है।
(ख) जो केवल पाप को मानते हैं, पुण्य को नहीं उनका कहना है कि जब पाप को तत्त्व रूप में स्वीकार कर लिया गया है तब पुण्य को मानने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि पाप का अपकर्ष ही पुण्य है। जिस प्रकार अपथ्याहार की वृद्धि होने से रोग की वृद्धि होती है, उसी प्रकार पाप की वृद्धि होने से अधमता की प्राप्ति होती है अर्थात् दुखः बढ़ता है। जिस प्रकार अपथ्याहार की कमी से आरोग्य की वृद्धि होती है उसी प्रकार पाप के अपकर्ष से शुभ की अर्थात् सुख की वृद्धि होती है। जब अपथ्याहार का सर्वथा त्याग होता है तब परम आरोग्य की प्राप्ति होती है वैसे ही पाप के सर्वथा नाश से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस प्रकार एक मात्र पाप मानने से ही सुख-दुःख दोनों घटते हैं। फिर पुण्य को अलंग मानने की आवश्यकता नहीं।
_इन तर्कों का उत्तर इस प्रकार है : केवल पुण्य को मानने के विपक्ष में जो दलीलें हैं वे ही विपरीत रूप में यहां लागू होती हैं। जिस प्रकार पुण्य के अपकर्ष से दुःख नहीं हो सकता उसी प्रकार पाप के अपकर्ष से सुख नहीं हो सकता। यदि अधिक विष अधिक नुकसान करता है तो अल्प विष अल्प नुकसान करेगा-फायदा नहीं कर सकता। इसी प्रकार पाप का अपकर्ष थोड़ा दुःख दे सकता है पर सुख का कारण अन्य तत्त्व ही
१. (क) विशेषावश्यकभाष्य गा० १६३१-३३
कम्मप्पकरिसजणितं तदवस्सं पगरिसाणुभूतीतो। सोक्खप्पगरिभूती जध पुण्णप्पगरिसप्पभवा।। तध बज्झसाधणप्पगरिसंगभावादिहण्णधा ण तयं । विवरीतबज्झसाधणबलप्पकरिसं अवेक्खेज्जा।। देहो णावचयकतो पुण्णुक्करिसे व मुत्तिमत्तातो।
होज्ज व स हीणतरओ कधमसुभतरो महल्लो य।। (ख) गणधरवाद पृ० १४२-३ २. (क) विषावश्यकभाष्य गा० १६१० :
पवुक्करिसेऽधमता तरतमजोगावकरिसतो सुभता।
तस्सेव खए मोक्खो अपत्थभत्तोवमाणातो।। (ख) गणधरवाद पृ० १३५