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टिप्पणियाँ १. पाप पदार्थ का स्वरूप (दो० १-४) :
इन प्रारम्भिक दोहों में निम्न बातों का प्रतिपादन है (१) पाप चौथा पदार्थ है। (२) जो कर्म विपाकावस्था में अत्यन्त जघन्य, भयंकर, रुद्र, भयभीत करनेवाला तथा
दारुण दुःख को देनेवाला होता है उसे पाप कहते हैं। (३) पाप पुद्गल है। वह चतुःस्पर्शी रूपी पदार्थ है। (४) पाप-कर्म स्वयंकृत है। पापास्रव जीव के अशुभ कार्यों से होता है। (५) पापोत्पन्न दुःख स्वयंकृत है। दुःख के समय क्षोभ न कर समभाव रहना
चाहिये।
अब हम नीचे इन पर क्रमशः प्रकाश डालेंगे। (१) पाप चौथा पदार्थ है :
श्रमण भगवान महावीर ने पुण्य और पाप दोनों का स्वतन्त्र पदार्थ के रूप में उल्लेख किया है। जो पुण्य और पाप को नहीं मानते, वे अन्यतीर्थी कहे गये हैं'। ऐसे मत को ध्यान में रखते हुए ही भगवान महावीर ने कहा है-“ऐसी संज्ञा मत रखो कि पुण्य
और पाप नहीं हैं। ऐसी संज्ञा रखो कि पुण्य और पाप हैं। भगवान महावीर के ' श्रमणोपासक पुण्य और पाप दोनों तत्त्वों के गीतार्थ होते थे। ऐसा उल्लेख अनेक आगमों में है।
पुण्य और पाप पदार्थों को लेकर जो अनेक विकल्प हो सकते हैं उनका निराकरण विशेषावश्यकभाष्य में देखा जाता है। वे विकल्प इस प्रकार हैं: :
१. सूयगडं १.१.१२ :
नत्थि पुण्णे व पावे वा, नत्थि लोए इतो वरे।
सरीरस्स विणासेणं, विणासो होइ देहिणो।। २. देखिये पृष्ठ १५० टि० १ (१) ३. सूयगडं २.२.३६ : से जहाणामए समणोवासगा भवंति अभिगयजीवाजीवा उवलद्धपुण्णपावा
आसवसंवरवेयणाणिज्जराकिरियाहिगरणबंधमोक्खकुसला। ४. विशेषावश्यकभाष्य गा० १६०८ :
मण्णसि पुण्णं पावं साधारणमधव दो वि भिण्णाई। होज्ज ण वा कम्मं चिय सभावतो भवपपंचोऽयं ।।