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पाप पदार्थ : टिप्पणी १
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(क) मात्र पुण्य ही है, पाप नहीं है। (ख) मात्र पाप ही है, पुण्य नहीं है। (ग) पुण्य और पाप एक ही साधारण वस्तु है। (ध) पुण्य-पाप जैसी कोई वस्तु नहीं; स्वभाव से सर्व प्रपंच हैं ।
नीचे क्रमशः इन वादों पर विचार किया जाता है : (क) 'मात्र पुण्य ही है, पाप नहीं है'-इस मत को माननेवालों का कहना है कि जिस प्रकार पथ्याहार की क्रमिक वृद्धि से आरोग्य की क्रमशः वृद्धि होती है, उसी प्रकार पुण्य की वृद्धि से क्रमशः सुख की वृद्धि होती है। जिस प्रकार पथ्याहार की क्रमशः हानि से आरोग्य की हानि होती है अर्थात् रोग बढ़ता है उसी प्रकार पुण्य की हानि होने से दुःख बढ़ता है। जिस प्रकार पथ्याहार का सर्वथा त्याग होने से मृत्यु होती है उसी प्रकार पुण्य के सर्वथा क्षय से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस प्रकार एक पुण्य से ही सुख-दुःख दोनों घटते हैं अतः पाप को अलग मानने की आवश्यकता नहीं। पुण्य का क्रमशः उत्कर्ष शुभ है। पुण्य का क्रमश : अपकर्ष अशुभ है। उसका सम्पूर्ण क्षय मोक्ष है अतः पाप कोई भिन्न पदार्थ नहीं।
इसका उत्तर इस प्रकार प्राप्त है-दुःख की बहुलता तदनुरूप कर्म के प्रकर्ष से ही सम्भव है पुण्य के अपकर्ष से नहीं। जिस प्रकार सुख के प्रकृष्ट अनुभव का कारण उसके अनुरूप पुण्य का प्रकर्ष माना जाता है वैसे ही प्रकृष्ट दुःखानुभव का कारण भी तदनुरूप किसी कर्म का प्रकर्ष होना चाहिए; और वह पाप-कर्म का प्रकर्ष है। पुण्य शुभ है, अतः बहुत अल्प होने पर भी उसका कार्य शुभ होना चाहिए। वह अशुभ तो हो ही नहीं सकता। जिस प्रकार अल्प सुवर्ण से छोटा सुवर्ण घट सम्भव है मिट्टी का नहीं उसी प्रकार कम अधिक पुण्य से जो कुछ होगा वह शुभ ही होगा अशुभ नहीं हो सकता। अतः अशुभ का कारण पाप भी मानना होगा। यदि दुःख पुण्य के अपकर्ष से हो तो प्रकारान्तर से सुख के साधनों का अपकर्ष ही उसका कारण होगा परन्तु दुःख के लिए दुःख के साधनों के प्रकर्ष की भी अपेक्षा है। जिस प्रकार सुख के साधनों के प्रकर्ष-अपकर्ष के लिए पुण्य का प्रकर्ष-अपकर्ष आवश्यक है उसी प्रकार दुःख के साधनों के प्रकर्ष-अपकर्ष के
१. (क) विशेषावश्यकभाष्य गा० १६०६ :
पुण्णुक्करिसे सुभता तरतमजोगावकरिसतो हाणी।
तस्सेव खये मोक्खो पत्थाहारोवमाणातो।। (ख) गणधरवाद पृ० १३५