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पाप पदार्थ
५४. दुर्भग नामकर्म के उदय से जीव दुर्भागी होता है - वह दूसरों को अप्रिय लगता है। किसी को नहीं सुहाता । दुःस्वर नाम कर्म से जीव दुःस्वर वाला होता है। उसका कंठ उत्तम नहीं होता - अशुभ होता है ।
५५. अनादेय नामकर्म के उदय से जीव के वचनों को कोई अंगीकार नहीं करता । अयश नामकर्म के उदय से जीव अयशस्वी होता है-लोग बार-बार उसका अयश करते हैं।
५६.
५७.
५८.
अपघात नामकर्म के उदय से दूसरे की जीत होती है और जीव स्वयं घात को प्राप्त होता है । विहायोगति नामकर्म के संयोग से जीव की चाल किसी को भी देखी नहीं सुहाती " ।
नीच गोत्रकर्म के उदय से जीव लोक में निम्न होता है। उच्च गोत्र वाले उससे छूत करते हैं । नीच गोत्र से जीव हर्षित नहीं होता । परन्तु नीच गोत्र भी अपना किया हुआ ही उदय में आता है २ ।
पाप - प्रकृतियों की पहचान के लिये यह जोड़ श्रीजी द्वार में सं० १८५५ वर्ष की जेठ सुदी ३ गुरुवार को की है।
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दुर्भगनामकर्म दुःस्वर नामकर्म
अनादेय नामकर्म अयशकीर्त्ति नामकर्म
अपघात नामकर्म प्रशस्त विहायोगति नामकर्म
नीच गोत्र कर्म
रचना - स्थान और
काल