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पाप पदार्थ : टिप्पणी १
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यद्यपि सोने या लोहे की बेड़ी की तरह दोनों ही आत्मा की परतन्त्रता के कारण हैं फिर भी इष्ट और अनिष्ट फल के भेद से पुण्य और पाप में भेद है। जो इष्ट गति, जाति, शरीर, इन्द्रिय-विषयादि का हेतु है वह पुण्य है तथा जो अनिष्ट गति, जाति, शरीर, इन्द्रिय-विषयादि का कारण है वह पाप है। '
___ आचार्य जिनभद्र कहते हैं-"जो स्वयं शोभन वर्ण, गंध, रस और स्पर्शयुक्त होता है और जिसका विपाक भी शुभ होत है वह पुण्य है, और उससे जो विपरीत होता है वह पाप है। पुण्य और पाप दोनों पुद्गल हैं। वे न अति बादर हैं न अति सूक्ष्म' ।“ “सुख और दुःख दोनों कार्य होने से दोनों के अनुरूप कारण होने चाहिए। जिस प्रकार घट का अनुरूप कारण मिट्टी के परमाणु हैं और पट का अनुरूप कारण तन्तु, उसी प्रकार सुख का अनुरूप कारण पुण्यकर्म और दुःख का अनुरूप कारण पापकर्म है।" कहा है
पुद्गलकर्म शुभं यत्तत्पुण्यमिति जिनशासने दृष्टम् ।
यदशुभमथ तत्पापमिति भवति सर्वज्ञनिर्दिष्टम् ।। स्वामीजी ने पाप की अधमता को जघन्य, अति भयंकर, घोर रुद्र आदि शब्दों द्वारा व्यक्त किया है। पाप पदार्थ उदय में आने पर अत्यन्त दारुण कष्ट देता है। यह सर्व मान्य है।
१. तत्त्वार्थवार्तिक ६.३.६ : उभयमपि पारतन्त्र्यहेतुत्वात् अविशिष्टमिति चेत्; न;
इष्टानिष्टनिमित्तभेदात्तद्भेदसिद्धेः । स्यान्मतम्-यथा निगलस्य कनकम यस्यायसस्य चाऽस्वतंत्रीकरणं फलं तुल्यमित्यविशेषः; तथा पुण्यं पापं चात्मनः पारतन्त्र्यनिमित्तमविशिष्टमिति ..........यदिष्टगतिजातिशरीरेन्द्रियविषयादिनिवर्तकं तत्पुणयम् । अनिष्टगतिजातिशरीरेन्द्रिय
विषयादिनिर्वर्तकं यत्तत्पापमित्यनयोरयं भेदः। २. विशेषावश्यकभाष्य १६४० :
सोभणवण्णातिगुणं सुभाणुभावं जं तयं पुण्णं ।
विवरीतमतो पावं ण बातरं णातिसुहुमं च।। ३. विशेषावश्यकभाष्य १९२१ :
सुह-दुक्खाणं कारणमणुरूवं कज्जभावतोऽवस्सं। परमाणवो घडस्स व कारणमिह पुण्णपावाई।।