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पुण्य पदार्थ (टाल : २) : टिप्पणी ३१
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३१. उपसंहार (गा० ५९-६३) :
इन गाथाओं में जो बातें कही गयीं हैं वे प्रायः पुनरुक्त हैं। इन गाथाओं के उपसंहारात्मक होने से इसी ढाल के प्रारंभिक भावों की उनमें पुनरुक्ति हो यह स्वाभाविक है। पुण्य की प्रथम ढाल संवत् १८५५ की कृति है। यह दूसरी ढाल संवत् १८४३ की कृति है। प्रथम ढाल में विषय को जिस रूप में उठाया गया है, द्वितीय ढाल में विषय को उसी रूप में समाप्त किया गया है। प्रथम ढाल के प्रारंभिक दोहों तथा गाथा संख्या ५२-५८ तक में जो बात कही गयी है वही बात इस ढाल में ६१-६३ संख्या की गाथाओं में है। ६०वीं गाथा में जो बात है वही प्रारंभिक दोहा संख्या १ में है। ५६वीं गाथा में सार रूप में उसी बात की पुनरुक्ति है जो इस ढाल का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। उपसंहार के रूप में यहाँ निम्न बातें कही गयीं हैं :
(१) निर्जरा और पुण्य की करनी एक है। जहाँ पुण्य होगा वहाँ निर्जरा होगी ही। जिस कार्य में निर्जरा है वह जिन भगवान की आज्ञा में है।
इस विषय में यथेष्ट प्रकाश टिप्पणी ४ (पृ० २०३-२०८) में डाला जा चुका है। पुण्य-हेतुओं का विवेचन और उस सम्बन्ध में दी हुई सारी टिप्पणियाँ इस पर विस्तृत प्रकाश डालती हैं।
(२) पुण्य नौ प्रकार से उत्पन्न होता है, ४२ प्रकार से भोग में आता है। इसके स्पष्टीकरण के लिये देखिये टिप्पणी १ (पृ० २००-१)।
अन्न-पुण्य, पान-पुण्य आदि पुण्य के नौ प्रकारों में मन-पुण्य, वचन-पुण्य और काय-पुण्य भी समाविष्ट हैं | मन, वचन और काय के प्रशस्त व्यापारों की संख्या निर्दिष्ट करना संभव नहीं। ऐसी हालत में नौ की संख्या उदाहरण स्वरूप है; अन्तिम नहीं। मन, वचन और काय के सर्व प्रशस्त योग पुण्य के हेतु हैं। पुण्य-बंध के हेतुओं का जो विवेचन पूर्व में आया है उसमें मन-पुण्य, वचन-पुण्य और काय-पुण्य के अनेक उदाहरण सामने आये हैं।
'विशेषावश्यकभाष्य' में सात वेदनीय, सम्यक्त्व मोहनीय, हास्य, पुरुषवेद, रति, शुभायु, शुभ नाम, शुभ गोत्र-इन प्रकृतियों को पुण्यप्रकृति कहा गया है'। शुभायु में देव,
१. विशेषावश्यकभाष्य १६४६ :
सातं सम्म हासं पुरिस-रति-सुभायु-णाम-गोत्राई। पुण्णं सेसं पावं णेयं सविवागमविवागं ।।