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पाप पदार्थ
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भोगांतराय कर्म उपभोगांतराय कर्म
३६. भोगान्तराय कर्म के उदय से भोग-वस्तुओं के मिलने पर
भी उनका सेवन-उपभोग नहीं हो सकता तथा उपभोगांतराय कर्म के उदय से मिली हुई उपभोग-वस्तुओं का भी सेवन नहीं हो सकता।
वीर्यान्तराय कर्म
४०. वीर्यान्तराय कर्म के उदय से तीनों ही वीर्य-गुण हीन पड़
जाते हैं। उत्थानादिक पाँचों ही हीन हो जाते हैं-जीव की शक्ति बिलकुल घट जाती है।
जीव का बल-पराक्रम अनन्त है। जीव स्वोपार्जित एक अन्तराय कर्म से उसको घटा देता है। कर्म जीव के लगाने पर ही लगता है। खुद का किया हुआ खुद के ही उदय में आता है।
४२. पाँचों अन्तराय कर्मों ने जीव के भिन्न-भिन्न गुणों को
आच्छादित कर रखा है। आच्छादित गुण के अनुसार ही कर्मों के नाम हैं। कर्मों के ये नाम जीव-प्रसंग से हैं। परन्तु जीव और कर्म दोनों के स्वभाव जुदे-जुदे हैं।
४३.
चार अघाति कर्म
जिन भगवान ने ये चार घनघाति कर्म कहे हैं। अघाति कर्म भी चार हैं। जिन भगवान ने इनको गुण्य-पाप दोनों प्रकार का कहा है। अब मैं अघाति पाप कर्मों का विस्तार कहता
असातावेदनीय कर्म
४४. जिस कर्म के उदय से जीव असाता-दुःख पाता है उस
पापकर्म का नाम असातावेदनीय कर्म है। जीव के स्वयं के संचित कर्म ही उसे दुःख देते हैं । असातावेदनीय कर्म
पुद्गलों का परिणाम विशेष है। ४५. नारक जीवों का आयुष्य पाप प्रकृति है; कई तिर्यंचों के
आयुष्य भी पाप है। असंज्ञी मनुष्य और कई संज्ञी मनुष्यों की आयु भी पापरूप मालूम देती है।
अशुभ आयुष्य कर्म (गा०. ४५-४६)