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नव पदार्थ
मनुष्य और तिर्यञ्च की आयु का समावेश है। शुभ नामकर्म प्रकृति में ३७ प्रकृतियों का समावेश है। इस तरह 'विशेषावश्यकभाष्य' के अनुसार ये ४६ प्रकृतियाँ शुभ होने से पुण्य रूप हैं।
'तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार भी पुण्य की ४६ प्रकृतियाँ हैं। आगम में सम्यक्त्व मोहनीय, हास्य, पुरुषवेद, रति इन्हें पुण्य की प्रकृति नहीं माना गया है। इन्हें न गिनने से पुण्य की प्रकृतियाँ ४२ ही रहती हैं। (देखिये टिप्पणी १० पृ० १६७-८)। बांधे हुए पुण्य कर्म ४२ प्रकार से उदय में आते हैं और अपनी प्रकृति के अनुसार फल देते हैं। यही पुण्य का भोग है।
(३) जो पुण्य की वांछा करता है वह कामभोगों की वांछा करता है। कामभोगों की वांछा से संसार की वृद्धि होती है।
इस विषय में प्रथम ढाल के दोहे १-५ और तत्संबंधी टिप्पणी १ (पृ०१५०-५५) द्रष्टव्य है। इस संबंध में एक प्रसिद्ध दिगम्बराचार्य का निम्न चिन्तन प्राप्त है :
निग्रंथ-प्रवचन में "पुण्य और पाप दोनों से मुक्त होना ही मोक्ष है।" "जिसके पुण्य और पाप दोनों ही नहीं होते वही निरंजन है ।
पुण्य से स्वर्गादि के सुख मिलते हैं और पाप से नरकादि के दुःख, ऐसा सोच कर जो पुण्य कर्म उत्पन्न करने के लिये शुभ क्रिया करता है वह पाप कर्म का बंध करता है। जैसे पाप दुःख का कारण है वैसे ही पुण्य से प्राप्त भोग-सामग्री का सेवन भी दुःख का कारण है, अतः पुण्य कर्म काम्य नहीं है।
"जो जीव पुण्य और पाप दोनों को समान नहीं मानता वह जीव मोह से मोहित हुआ बहुत काल तक दुःख सहता हुआ भटकता है।
१. नवतत्त्वसाहित्यसंग्रह : भाष्यसहित नवतत्त्वप्रकरणम्
सायं उच्चागोयं सत्तत्तीसं तु नामपगईओ।
तिन्नि य आऊणि तहा, वायालं पुन्नपगईओ।। ७।। २. परमात्मप्रकाश २.६३ :
पावें णारउ तिरिउ जिउ पुण्ण अमरु वियाणु।
........दोहि वि खइ णिव्वाणु ।। ३. परमात्मप्रकाश १.२१ :
अस्ति न पुण्यं न पापं यस्य.....
.............स एव निरञ्जनो भावः ।। ४. परमात्मप्रकाश २.५५ :
जो णवि मण्णइ जीउ समु पुण्णु वि पाउ वि दोइ। सो चिरु दुक्खु सहंतु जिय मोहिं हिंडइ लोइ।।