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नव पदार्थ
चित्त बोले-"राजन् ! तुम्हारी भोगों को छोड़ने की बुद्धि नहीं है, तुम आरम्भ-परिग्रह में आसक्त हो। मैंने व्यर्थ ही इतना बकवाद किया। अब मैं जाता हूँ।"
__ साधु के वचनों का पालन नहीं कर और उत्तम काम-भोगों को भोगकर पाञ्चालराज ब्रह्मदत्त प्रधान नरक में उत्पन्न हुए।
महर्षि चित्त काम-भोगों से विरक्त हो, उत्कृष्ट चारित्र और तप तथा सर्वश्रेष्ठ संयम का पालन कर सिद्ध गति को प्राप्त हुए।
आगम में चार बातें दुर्लभ कही गई हैं : (क) मनुष्य-जन्म, (ख) धर्म-श्रवण, (ग) श्रद्धा और (घ) संयम में वीर्य' । निदान का ऐसा पाप फल-विपाक होता है कि इन चारों की प्राप्ति दुर्लभ हो जाती है। इस तरह निदान से संसार की वृद्धि होती है; मुक्ति-मार्ग शीघ्र हाथ नहीं आता। (४) वांछा एक मुक्ति की ही करनी चाहिए; पुण्य अथवा सांसारिक सुखों की नहीं।
आगम में कहा है : "कोई इहलोक के लिए तप न करे; परलोक के लिए तप न करे; कीर्ति-श्लोक के लिए तप न करे; एक निर्जरा (कर्म-क्षय) के लिए तप करे और किसी के लिए नहीं। यही तप-समाधि है।" "कोई इहलोक के लिए आचार-चारित्र का पालन न करे; परलोक के लिए आचार का पालन न करे; कीर्ति-श्लोक के लिए आचार का पालन न करे; पर अरिहंतों द्वारा प्ररूपित हेतु के लिए ही आचार का पालन करे, अन्य किसी हेतु के लिए नहीं। यही आचार-समाधि है।"
१. उत्त० ३.१ :
चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जन्तुणो।
माणुसत्तं सुई सद्धा संजमंमि य वीरियं ।। २. दशवैकालिक ६.४.७ :
नो इहलोगट्ठयाए तवमहिद्वेज्जा, नो परलोगट्ठयाए तवमहिद्वेज्जा, नो कित्तिवण्णसद्द-सिलोगट्ठयाए तवमहिढेज्जा, नन्नत्थ निज्जरट्ठयाए तवमहिढेज्जा चउत्थं पयं भवइ।। ७॥ वही ६.४.६ : चउव्विहा खलु आयार-समाही भवइ, तं जहा। नो इहलोगट्ठयाए आयारमहिद्वेज्जा, ना परलोगट्ठयाए आयारमहिढेज्जा, नो कित्ति-वण्ण-सद्द-सिलोगट्ठयाए आयारमहिढेज्जा, नन्नत्थ आरहन्तेहिं हेऊहिं आयारमहिढेज्जा चउत्थं पयं भवइ ।