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ढाल : १
जिन भगवान ने चार घनघाती कर्म कहे हैं। इन कर्मों को अभ्रपटल - बादलों की तरह समझो। जिस तरह बादल चन्द्रमा को ढक लेते हैं उसी प्रकार इन कर्मों ने जीव को आच्छादित कर उसके स्वाभाविक गुणों को विकृत (फीका) कर दिया है।
ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय ये चार घनघाती कर्म हैं । कर्मों के ये ज्ञानावरणीय आदि नाम क्रमशः आत्मा के उन-उन ज्ञानादि गुणों को विकृत करने से पड़े हैं।
ज्ञानावरणीय कर्म ज्ञान को उत्पन्न नहीं होने देता । दर्शनावरणीय कर्म दर्शन को उत्पन्न होने से रोकता है। मोहनीय कर्म जीव को मतवाला कर देता है । अन्तराय कर्म अच्छी वस्तु की प्राप्ति में बाधक होता है । ये कर्म चतुःस्पर्शी रूपी पुद्गल हैं। जीव ने बुरे कृत्यों से इन्हें आत्म-प्रदेशों से लगाया है। इनके उदय से जीव के (अज्ञानी आदि) बुरे नाम पड़ते हैं। जो कर्म जैसी बुराई उत्पन्न करता है उसका नाम भी उसीके अनुसार है ।
ज्ञानावरणीय आदि चारों कर्मों की प्रकृतियां एक दूसरे से भिन्न हैं। अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार इनके भिन्न-भिन्न नाम हैं। ये कर्म जीव के भिन्न-भिन्न गुणों को रोकते-अटकाते हैं । अब मैं इनके स्वरूप को कुछ विस्तार से कहूँगा ।
घनघाती कर्म और
उनका सामान्य स्वभाव
घनघाती कर्मों के नाम
प्रत्येक का स्वभाव
गुण-निष्पन्न नाम (गा. ४-५ )