________________
पाप पदार्थ
२६१
ज्ञानावरणीय कर्म की पाँच प्रकृतियों का
स्वभाव (गा०.६७)
६-७. ज्ञानावरणीय कर्म की पाँच प्रकृतियाँ हैं। जिनसे जीव पाँच
ज्ञानों को नहीं पाता । मतिज्ञानावरणीय कर्म मतिज्ञान के लिए रुकावट स्वरूप होता है। श्रुतज्ञानावरणीय कर्म श्रुतज्ञान को नहीं आने देता। अवधिज्ञानावरणीय कर्म अवधिज्ञान को रोकता है। मनःपर्यवावरणी कर्म मनःपर्यवज्ञान को नहीं होने देता और केवलज्ञानावरणीय केवलज्ञान को रोकता है। इन पाँचों में पाँचवीं प्रकृति सबसे अधिक घनी होती है। ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से जीव (मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, । अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान) चार ज्ञान प्राप्त करता है। केवलज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं होता, उसके
क्षय होने से केवलज्ञान प्राप्त होता है। ६. दर्शनावरणीय कर्म की नौ प्रकृतियाँ हैं, जो नाना रूप से
देखने और सुनने आदि में बाधा करती हैं। ये जीव को। बिलकुल अंधा कर देती हैं। इनमें केवलदर्शनावरणीय कर्म प्रकृति सबसे अधिक घनी होती है।
इसके क्षयोपशम आदि से निष्पन्न
भाव
दर्शनावरणीय कर्म की नौ
प्रकृतियाँ (गा०,६-१५)
चक्षुदर्शनावरणीय कर्म के उदय से जीव चक्षुहीन-बिलकुल अंधा और अजान हो जाता है । अचक्षुदर्शनावरणीय कर्म के योग से (अवशेष) चार इन्द्रियों की हानि हो जाती है।
११. अवधिदर्शनावरणीय कर्म के उदय से जीव अवधिदर्शन को
नहीं पाता तथा केवलदर्शनावरणीय कर्म-प्रसंग से
केवल-दर्शन रूपी दीपक प्रकट नहीं होता। १२-१३ जो सोया हुआ प्राणी जगाने पर सहज जागता है-उसकी
नींद 'निद्रा' है; 'निद्रा निद्रा' के उदय से जीव कठिनाई से जागता है। बैठे-बैठे, खड़े-खड़े जीव को नींद आती है-उसका नाम 'प्रचला है। जिस निद्रा के उदय से जीव को चलते-फिरते नींद आती है वह 'प्रचला-प्रचला' है। पाँचवीं निद्रा 'स्त्यानगृद्धि' है। इससे जीव बिलकुल दब जाता है। यह निद्रा बड़ी कठिन-गाढ़ होती है।