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पुण्य पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी ३०
शुभ ध्यान, शुभ लेश्या, शुभ परिणाम और शुभ अध्यवसाय चारों शुभ और प्रशस्त भाव हैं। इनसे निर्जरा के साथ पुण्य का बंध होता है। अशुभ ध्यान, अशुभ लेश्या, अशुभ परिणाम और अशुभ अध्यवसाय चारों अशुभ और अप्रशस्त भाव हैं। इनसे पाप कर्मों का बंध होता है। इन्हें एक उदाहरण से समझा जा सकता है। साधु की वंदना करना निरवद्य कार्य है। साधु-वंदन का ध्यान, लेश्या, परिणाम और अध्यवसाय शुभ मनोयोग रूप हैं। यतनापूर्वक साधु की स्तुति करना शुभ वचन योग है। उठ-बैठ कर वंदना करना शुभ काय योग है। परदार-सेवन का ध्यान, लेश्या, परिणाम और अध्यवसाय अशुभ मनोयोग रूप हैं | वचन और काय से उस ओर प्रवृत्ति करना अशुभ वचन और काय योग हैं।
भावना साधु-वंदन की होने पर भी वचन और काय के योग अशुभ हो सकते हैं। भावना की शुद्धि से योगों में उस समय तक शुद्धि नहीं आयेगी जब तक वे अपने आप में प्रशस्त और यतनापूर्वक नहीं हैं। स्वामीजी ने इस बात को इस प्रकार कहा है :
"एक मनुष्य साधु की वंदना करने के उद्देश्य से घर से निकलता है। उद्देश्य साधु-वंदन का होने पर भी जाते समय वह मार्ग में जैसे कार्य करेगा वैसे ही फल उसे मिलेंगे। रास्ते में सावद्य-निरवद्य जैसे उसके तीनों योग होंगे उसी अनुसार उसके अलग-अलग पुण्य-पाप का बंध होगा। यदि मन योग शुभ होगा तो उससे एकान्त निर्जरा होगी तथा वचन और काय के योग अशुभ होंगे तो उनसे एकान्त पाप होगा। कदाचित् काय और वचन योग शुभ होंगे तो उनसे धर्म होगा, मन योग अशुभ होगा तो उससे पाप लगेगा। अगर तीनों ही योग शुभ होंगे तो जरा भी पाप का बंध नहीं होगा। अगर तीनों योग अशुभ होंगे तो केवल पाप का बंध होगा। इस प्रकार वन्दना के उद्देश्य से रास्ते में जाते समय तीनों योगों का भिन्न-भिन्न व्यापार हो सकता है। जो योग अशुभ होगा उससे पाप और जो योग शुभ होगा उससे पुण्य का बंध होगा, इसमें अन्तर नहीं पड़ सकता। दूध और जल की तरह सावध और निरवद्य के फल भिन्न-भिन्न हैं। साधु के पास पहुंचने पर यदि वह भाव सहित साधु की वन्दना करता है तो उसके कर्मों का क्षय होता है। साधु-वन्दन के लिए जाना, वहाँ से लौटना और साधु के समीप पहुंचने पर उसकी वन्दना करना-ये तीनों भिन्न-भिन्न कर्तव्य हैं। उसका जाना साधु की वन्दना करने के लिए है, उसका आना घर के लिए है। साधु की वन्दना करना उक्त दोनों कार्यों से भिन्न है। ये तीनों कर्तव्य एक नहीं हैं।"
१. भिक्षु-ग्रन्थ रत्नाकर (खण्ड १) : विरत इविरत री चौपई : ढाल ६. १२-१६