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नव पदार्थ
(१) अनिदान : तप आदि धार्मिक अनुष्ठान के फलस्वरूप सांसारिक भोगादि की
प्रार्थना-कामना करने को निदान कहते हैं, उसका अभाव ; (२) दृष्टिसंपन्नता : निर्मल सम्यकदर्शन से संयुक्त होना ; (३) योगवाहिता-समाधिभाव । योगों में, बाह्य पदार्थों के प्रति, उत्सुकता का अभाव ; (४) क्षान्ति-क्षमणता ; आक्रोश, वध, बंधन आदि परिषह-सहन (५) जितेन्द्रियता-इन्द्रिय-दमन ; (६) अमायाविता : छल, कपटादि का अभाव ; (७) अपार्श्वस्थता : ज्ञान, दर्शन, चारित्र की उपासना । शय्यातर पिण्ड, अभिहृत
पिण्ड, नित्य पिण्ड, नियताग्र पिण्ड आदि का सेवन न करना ; (E) सुश्रामण्य : पास्थितादि अवगुणों से रहित मूल उत्तर गुणों से सयुंक्त होना ; (६) प्रवचन-वत्सलता-पाँच समितियों और तीन गुप्तियों का सम्यक्पालन और (१०) प्रवचन-उद्भावनता-धर्म-कथा-कथन। यह भद्र कर्म शुभ है और यहाँ वर्णित उसके बंध-हेतु भी शुभ हैं। इस पाठ से भी यही सिद्ध होता है कि पुण्य कर्मों के बंध-हेतु निरवद्य होते हैं।
२७. पुण्य के नव बोल (गा० ५४) :
द्वितीय ढाल के प्रथम दो दोहों में जो बात कही है वही यहाँ पुनः कही गयी है (देखिए पृ० २००-२०१ टि० १,२)। इस पुनरुक्ति का कारण यह है कि स्वामीजी आगे जाकर इन नवों ही बोलों की अपेक्षा की चर्चा करना चाहते हैं और इस चर्चा की उत्थानिका के रूप में पुनरावृत्ति करते हुए उन्होंने कहा है :
"पुण्य उत्पत्ति के नवों हेतु निरवद्य हैं। वे जिन-आज्ञा में हैं। सावद्य-निरवद्य व्यतिरिक्त रूप से नवों बोल पुण्य-बंध के हेतु नहीं हैं।"
२८. क्या नवों बोल अपेक्षा रहित हैं ? (गा० ४०-४४) :
इन गाथाओं में भी वही चर्चा है, जो आरम्भिक दोहों (३-६) में है। इस संबंध में पूर्व टिप्पणी ३ में कुछ प्रकाश डाला जा चुका है।
कइयों का कथन है कि जिस स्थल पर अन्न पुण्य, पान पुण्य के बोल आए हैं वहाँ पर भगवान ने यह निर्देश नहीं किया है कि अमुक को ही देना, अमुक तरह का अन्न-पान ही देना आदि। इसलिये पात्र-अपात्र, सचित्त-अचित्त, एषणीय-अनेषणीय का