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पुण्य पदार्थ (टाल : २) : टिप्पणी ३०
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इस सम्बन्ध में प्रज्ञाचक्षु पं. सुखलालजी लिखते हैं-"योग के शुभत्व और अशुभत्व का आधार भावना की शुभाशुभता है। शुभ उद्देश्य से प्रवृत्त योग शुभ, और अशुभ उद्देश्य से प्रवृत्त योग अशुभ है। कार्य-कर्म-बंध की शुभाशुभता पर योग की शुभाशुभता अवलम्बित नहीं; क्योंकि ऐसा मानने से सारे योग अशुभ ही कहलायेंगे, कोई शुभ नहीं कहलायेगा; क्योंकि शुभ योग भी आठवें आदि गुण स्थानों में अशुभ ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के बंध का कारण होता है (इसके लिए देखो हिन्दी ‘कर्म-ग्रन्थ भाग चौथा : "गुण स्थानों में बंध विचार' ; तथा हिन्दी 'कर्म-ग्रन्थ' भाग २)। . उपर्युक्त तीनों उद्धरणों में जो बात कही गई है वह अत्यन्त अस्पष्ट तथा
संदिग्ध है। उल्लिखित ‘कर्म-ग्रन्थों' के संदर्भो में भी इस संबन्ध में कोई विशेष प्रकाश डालने वाली बात नहीं। शुभयोग से ज्ञानावरणीय कर्म के बंध का उल्लेख किसी भी आगम में प्राप्त नहीं है।
इसी भावनावाद का सहारा लेकर ही हरिभद्रसूरि जैसे विद्वान् आचार्य ने द्रव्य-स्नान और पुष्प-पूजा को अशुद्ध कहते हुए भी उनमें पुण्य की प्ररूपणा की है।
स्वामीजी ने प्रकारान्तर से इस भावनावाद का यहाँ खण्डन किया है। उनकी दृष्टि से भावना, आशय अथवा उद्देश्य से योग शुभ-अशुभ होता है, यह सिद्धान्त ही अशुद्ध है। सर्दी के दिन हैं । शीत के कारण एक जैन साधु काँप रहा है। एक मनुष्य उसे काँपता
१. तत्त्वार्थसूत्र (तृ० आo गुज०) पृ० २५२ २. अष्टप्रकरण : स्नानाष्टक : ३-४ :
कृत्वेदं यो विधानेन देवतातिथिपूजनम् । करोति मलिनारम्भी तस्यैतदपि शोभनम् ।। भावशुद्धिनिमित्तत्वात्तथानुभवसिद्धितः कथञ्चिद्दोषभावेऽपि तदन्यगुणभावतः ।। वही : पूजाष्टकम् : २-४ : शुद्धागमैर्यथालाभं प्रत्यग्रैःशुचिभाजनैः । स्तोकैर्वा बहुभिर्वाऽपि पुष्पैर्जात्यादिसम्भवैः।। अष्टापायविनिर्मुक्ततदुत्थगुणभूतये। दीयते देवदेवाय या साऽशुद्धत्युदाहृता।।' सङ्कीर्णैषा स्वरूपेण द्रव्याद्भावप्रसक्तितः । पुण्यबन्धनिमित्तत्वाद् विज्ञेया सर्वसाधनी।।