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पुण्य पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी २६
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'सुमंगला टीका' के उपर्युक्त विवेचन का सार यह है कि स्वस्थ मिथ्यात्वियों का इच्छापूर्वक देने के अतिरिक्त सबको अन्न देने में कम या अधिक पुण्य होता है। तत्त्व निर्णय में दान के निषेध की शंका करने की आवश्यकता नहीं । तथ्य यह है कि आगमों में सुपात्र अर्थात् श्रमण-निग्रंथ को छोड़ कर अन्य किसी को अन्नादि देने से पुण्य होता है, ऐसा विधान कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होता।
श्रावक के बारहवें व्रत अतिथि-संविभाग का स्वरूप बताते हुए तत्त्वार्थसूत्रकार कहते
हैं।
___ "न्यायागत, कल्पनीय अन्नपानादि द्रव्यों का, देश-काल-श्रद्धा-सत्कार के क्रम से, अपने अनुग्रह की प्रकृष्ट बुद्धि से संयतियों को दान करना अतिथिसंविभागवत है।"
न्यायगत का अर्थ है-अपनी वृत्ति के अनुष्ठान-सेवन से प्राप्त अर्थात् अपने । कल्पनीय का अर्थ है-उद्गमादि-दोष-वर्जित।
अन्नपानादि द्रव्यों का अर्थ है-अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, प्रतिश्रय संस्तार और भेषजादि वस्तुएँ।
देश-काल-श्रद्धा-सत्कार के क्रम से का अर्थ है-देश, काल के अनुसार श्रद्धा-विशुद्ध परिणाम और सत्कार-अभ्युत्थान, आसन दान, वंदन अनुव्रजनादि की परिपाटी के साथ |
अनुग्रह की प्रकृष्ट बुद्धि का अर्थ है-मैं पंच महाव्रत युक्त साधु को दे रहा हूँ, इसमें मेरा अनुग्रह-कल्याण है, इस उत्कृष्ट भावना से ।
१. तत्त्वार्थसूत्र ७.१६ भाष्य : अतिथिसंविभागो नाम न्यायागतानां कल्पनीयानामन्नपानादीनां
द्रव्याणां देशकालश्रद्धासत्कारक्रमोपेतं परयात्मानुग्रहबुद्ध्या संयतेभ्यो दानमिति।। २. सिद्धसेन टीका ७.१६ : न्यायोद्विजक्षत्रियविट्शूद्राणां च स्ववृत्त्यनुष्ठानम्। ......तेन
तादृशा न्यायेनागतानाम् ३. वही : कल्पनीयानामिति उद्गमादिदोषवर्जितानाम् ४. वही : अशनीयपानीयखाद्यस्वाद्यवस्त्रपात्रप्रतिश्रयसंस्तारभेषजादीनाम् । पुदगलविशेषाणाम् । ५. वही : श्रद्धा विशुद्धश्चित्तपरिणामः पात्राद्यपेक्षः। सत्कारोऽभ्युत्थानासनदानवन्दनानुव्रजनादिः । __क्रमः परिपाटी। देशकालापेक्षो यः पाको निर्वृत्तः स्वगेहे तस्य पेयादिक्रमेण दानम्। ६. वही : परयेति प्रकृष्टया आत्मनीऽनुग्रहबुद्ध्या ममायमनुग्रहो महाव्रतयुक्तैः साधुभिः क्रियते
यदशनीयाद्याददत इति।