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वचन पुण्य और काय पुण्य में भी शुभ-अशुभ प्रवृत्ति का अन्तर रखने की आवश्यकता नहीं होगी; हर प्रकार के मन प्रवर्तन से पुण्य होगा। इसी प्रकार नमस्कार पुण्य में भी नमस्य को लेकर भेद करने की आवश्यकता नहीं रहेगी; हर किसी को नमस्कार करने से पुण्य होगा । इस तरह 'शुभ योग से पुण्य होता है' यह सर्वमान्य सिद्धान्त ही अर्थशून्य हो
जायगा ।
(२) यदि नमस्कार पुण्य केवल पंच परमेष्ठियों को नमस्कार करने से मानते हों और मन, वचन तथा काय पुण्य केवल उनके शुभ प्रवर्तन में, तो उस हालत में समुच्चय की स्थापना नहीं टिक सकती। केवल अन्न पुण्य और पान पुण्य को ही समुच्चय- अपेक्षा रहित मानने का कोई कारण नहीं, सबको अपेक्षा रहित मानना चाहिए। यदि नमस्कार पुण्य, मन पुण्य, वचन पुण्य और काय पुण्य को सापेक्ष मानते हों तो उस परिस्थिति में अन्न पुण्य, पान पुण्य आदि को भी सापेक्ष मानना होगा और यही कहना होगा कि निर्ग्रथ-श्रमण को प्रासुक और एषणीय कल्प्य वस्तु देने से ही पुण्य होता है।
(३) दान के सम्बन्ध में श्रमणोपासक का बारहवाँ अतिथिसंविभागव्रत विशेष दिशासूचक है। जहाँ कहीं भी इस व्रत का उल्लेख आया है वहाँ पर श्रमण-निर्ग्रथ को अचित्त निर्दोष अन्न आदि देने की बात कही गई है। उदाहरण स्वरूप 'सूत्रकृताङ्ग' में कहा है :
"श्रमणोपासक निर्ग्रथ-श्रमणों को प्रासुक, एषणीय और स्वीकार करने योग्य अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कंबल, रजोहरण, औषधि, भैषज्य, पीठ, पाट, शय्या और स्थान देते रहते हैं ।"
'भगवती सूत्र' में तुंगिका नगरी के श्रावकों के वर्णन में भी ऐसा ही उल्लेख है। 'उपासकदशाङ्ग सूत्र' के प्रथम अध्ययन में आनन्द श्रावक ने इसी रूप में बारहवें व्रत को धारण किया है। 'सूत्रकृताङ्ग' में आगे जाकर लिखा है: "... इस प्रकार जीवन बिताने
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नव पदार्थ
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सूत्रकृताङ्ग २.२.३६ : समणे निग्गंथे फासुएसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थपडिग्गहकंबलपायपुंछणेणं ओसहभेसज्जेणं पीठफलगसेज्जासंथारएणं पडिलाभेमाणा .....विहरति ।
भगवती २.५ : समणे निग्गंथे फासुएसणिज्जेणं असण पाण- खाइम साइमेणं, वत्थ-पडिग्गहकंबल-पायपुंछणेणं, पीढ - फलग - सेज्जा - संथारएणं ओसह-भे सज्जेणं पडिलाभेमाणा अहापडिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणा विहरंति ।
उपासकदशा १.५८ : कप्पइ मे समणे निग्गन्थे फासुएणं एसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थकम्बलपडिग्गहपायपुंछणेणं पीढफलगसिज्जासंथारएणं ओ सहभे सज्जेणं य पडिलाभेमाणस्स विहरित्तए ।