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पुण्य पदार्थ (टाल : २) : टिप्पणी २३
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(६) नीचगोत्रकार्मणशरीरप्रयोगनामकर्म का उदय । 'तत्त्वार्थसूत्र' में उच्च गोत्र तथा नीच गोत्र के बंध-हेतु इस प्रकार हैं : परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणाच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य (६.२४) तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्त्यनुत्सेको चोत्तरस्य । (६.२५)
इन पाठों के अनुसार परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, सदगुणों का आच्छादन और असद्गुणों के प्रकाशन ये नीच गोत्र के बंध-हेतु हैं और इनसे विपरीत अर्थात् परप्रशंसा, आत्मनिन्दा आदि उच्च गोत्र के बंध-हेतु हैं।
शुभ उच्च गोत्र के बंध-हेतु शुभ हैं और नीच गोत्र के बंध-हेतु अशुभ हैं।
२३. ज्ञानावरणीय आदि चार पाप कर्मों के बंध-हेतु (गा० ३१) : .
कर्म आठ हैं। पुण्य और पाप इन दो कोटियों की अपेक्षा से वर्गीकरण करने पर ज्ञाानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय-ये चारों एकांत पाप की कोटि में आते हैं (देखिए पृ० १५५-६ टि० ३ (१))।
बंध-हेतुओं की दृष्टि से पाप कर्मों के बंध-हेतु भी पाप रूप हैं। जिस करनी से पाप कर्मों का बंध होता है वह सावध और जिन-आज्ञा के बाहर होती है। ज्ञानावरणीय आदि चार एकान्त पाप कर्मों के बंध-हेतु नीचे दिये जाते हैं, जिनसे यह कथन स्वतः प्रमाणित होगा।
१. ज्ञानावरणीय कर्म के बंध-हेतु :
(१) ज्ञान-प्रत्यनीकता, (२) ज्ञान-निन्हव, (३) ज्ञानान्तराय, (४) ज्ञान-प्रद्वेष, (५) ज्ञानाशातना और
(६) ज्ञान-विसंवादन योग। २. दर्शनावरणीय कर्म के बंध-हेतु :
(१) दर्शन-प्रत्यनीकता, (२) दर्शन-निन्हव, (३) दर्शनान्तराय,