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पुण्य पदार्थ (टाल : २) : टिप्पणी ४
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स्थान पाते हैं। प्रशस्त योग से ये कर्म विपाकावस्था में अच्छे फल के देने वाले होते हैं इसलिये पुण्य कहलाते हैं।
(३) जहां पुण्य होगा वहां निर्जरा अवश्य होगी : स्वामीजी ने आगे चलकर भिन्न-भिन्न सूत्रों के अनेक पाठ दिए हैं जिससे इस सिद्धान्त की वास्तविकता स्वयंसिद्ध होती है। जहां निर्जरा होती है वहां पुण्य नहीं भी हो सकता है। लेकिन जहां पुण्य होगा वहां निर्जरा अवश्य होगी। शुभ योगों से निर्जरा होती है और प्रासंगिक रूप से पुण्य का बंध (देखिए गाथा ४-३७ तथा टिप्पणी ५-२६)।
(४) सावध करनी से पुण्य नहीं होता : बाद में स्वामीजी ने सूत्रों से अनेक उद्धरण दिये हैं उनसे यह बात स्वयमेव सिद्ध हो जाती है। इसके लिए पाठक देखेंगाथा ४-३७ तथा टिप्पणी ५-२६।
(५) पुण्य की करनी में जिन-आज्ञा है : श्वेताम्बर आचार्यों ने शुभ योग से पुण्य का बंध माना है और दिगम्बर आचार्यों ने शुभ उपयोग से। जब पुण्य भी बंधन रूप है तब प्रश्न है उसके उत्पादक शुभ योग अथवा शुभ उपायोग हेय हैं अथवा ग्राह्य ?
__ ब्रह्मदेव कहते हैं : "जो ज्ञानदर्शनचारित्रमय रत्नत्रयी रूप मोक्ष-मार्ग को नहीं जानता, वही निश्चय नय से हेय होने पर भी पुण्य को उपादेय समझ उसे करता है। (यहाँ पुण्य का अर्थ है पुण्य को उत्पन्न करने वाले शुभ उपयोग।) जो यह नहीं जानता है कि बंध और मोक्ष का हेतु 'निज' है वही पुण्य और पाप दोनों को मोह से करता
१. निरजरा री निरवद करणी करतां, करम तणो खय जानो रे।
जीव तणां परदेश चले छे. त्यांसू पुन लागे , आंणो रे।। ४२ ।। निरजरा री करणी करें तिण काले, जीव रा चाले सर्व परदेशो रे। जब सहचर नाम करम सूं उदे भाव, तिणसूं पुन तणो परवेशो रे।। ४३ ।। मन वचन काया रा जोग तीनूंइ, पसत्थ ने अपसत्थ चाल्या रे। अपसत्थ जोग तो पाप ना दुवार, पसत्य निरजरा री करणी में घाल्या रे।। ४४ ।। परमात्मप्रकाश २.५३ की टीका : निजशुद्धात्मानुभूतिरुचिविपरीतं मिथ्यादर्शनं स्वशुद्धात्मप्रतीतिविपरीतं मिथ्याज्ञानं निजशुद्धात्मद्रव्यनिश्चलस्थितिविपरीतं मिथ्याचारित्रमित्येत्त्रं कारणं, तस्मात्त्रयाद्विपरीतं भेदाभेदरत्नत्रयस्वरूपं मोक्षस्य कारणमिति योऽसौ न जानाति स एव पुण्यपापद्वयं निश्चयनयेन हेयमपि मोहपशात्पुण्यमुपादेयं करोति पापं हेयं करोतीति भावार्थः
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