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नव पदार्थ
मूर्छाभाव परिग्रह-अशुभ योग है। मूर्छा न रखना कुशल मनोयोग है।
आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है-काया, वचन और मन की क्रिया को योग कहते हैं | आत्मा के प्रदेशों का परिस्पन्दन-हलन-चलन योग है।
जिस तरह मकान के द्वार, तालाब के नाला और नौका के छिद्र होता है वैसे ही जीव के योग होता है। जैसे मकान के द्वार से प्राणी घर में प्रवेश करता है वैसे ही योग से कर्म पुद्गल आत्म-प्रदेशों में आस्रव करते हैं; जैसे नाले के द्वारा तालाब में जल इकट्ठा होता है, वैसे ही योग द्वारा कर्म आत्म-प्रदेशों में इकट्ठे होते हैं; जैसे छिद्र द्वारा नौका में जल भरता है वैसे ही योग द्वारा आत्म-प्रदेशों में कर्म संचित होते हैं।
योगयुक्त जीव के आत्म-प्रदेशों के परिस्पन्दन से कर्म-वर्गणा के पुद्गल आत्मा में प्रवेश करते हैं । यदि योग शुभ होता है तो कर्म पुण्य रूप होते हैं। यदि योग अशुभ होता है तो कर्म पाप रूप होते हैं।
(२) शुभ योग से निर्जरा होती है और पुण्य सहज रूप से उत्पन्न होता है : __इस सम्बन्ध में कुछ प्रकाश पूर्व में डाला जा चुका है (देखिए पृ० १७३-४ टि० १५)। स्वामीजी ने अन्यत्र लिखा है-जब जीव शुभ कर्त्तव्य-निरवद्य क्रिया करता है तब कर्मों का क्षय होता है। इससे जीव के सर्व आत्म-प्रदेशों मे हलन-चलन होती है, जिससे आत्म-प्रदेशों में कर्मों का आश्रव होता है। जब शुभ योग के समय जीव के आत्म-प्रदेशों में स्पन्दन होता है तब सहचर नामकर्म के उदय से पुण्य-कर्म आत्म-प्रदेशों में प्रवेश पाते हैं। मन-वचन-काया के योग प्रशस्त और अप्रशस्त दो तरह के होते हैं। अप्रशस्त योगों से पाप का प्रवेश होता है। प्रशस्त योगों से निर्जरा होती है। निर्जरा होते समय आत्म-प्रदेशों का जो परिस्पन्दन होता है उससे पुण्य-कर्म आकृष्ट होकर आत्म-प्रदेशों में
१. तत्त्वार्थसूत्र ६.१ की वृति : अनभिध्यादिधर्मशुक्लध्यानध्यायिता वेत्ति मनोयोग : कुशलः,
मूर्छालक्षणः परिग्रह इति मनोव्यापार एव। २. सवार्थसिद्धि ६.१ की वृत्ति : 'कर्म क्रिया इत्यनर्थान्तरम् । कायवाङ्मनसां कर्म कायवाङ् मनःकर्म योग इत्याख्यायते
आत्मप्रदेशपरिस्पन्दो योगः (क) तेरा द्वार (ख) तत्त्वार्थसूत्र भाष्य : शुभाशुभयोःकर्मणोरास्तव णादास्तवः सरः सलिलवाहिनि
बाहिस्तोतोवत्