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नव पदार्थ
(४) अमात्सर्य और (५) मनुष्यायुष्कार्मणशरीरप्रयोगनामकर्म का उदय । इस विषय में 'स्थानाङ्ग' का पाठ इस प्रकार है :
चउहिं ठाणेहिं जीवा मणुस्सत्ताते कम्म पगरेंति, तंजहा-पगतिभद्दताते पगति विणीययाए साणुक्कोसयाते अमच्छरिताते । (४.४.३७३)
"तत्त्वार्थसूत्र' में मनुष्यायुष्य के बंध-हेतु इस प्रकार वर्णित हैं : अल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवार्जवं च मानुषस्य । (६.१८)
'तत्त्वार्थसूत्र' के अनुसार (१) अल्पारम्भ, (२) अल्पपरिग्रह, (३) मार्दव और (४) आर्जव-ये चार मनुष्यायुष्य कर्म के बंध-हेतु हैं।
आगमोक्त और इन हेतुओं का पार्थक्य स्पष्ट है। शुभ मनुष्यायुष्य के बंध-हेतु भी शुभ हैं।
२०. देवायुष्य के बंध-हेतु (गा० २६) :
देवायुष्य के बंध-हेतुओं का वर्णन 'भगवती सूत्र' के पाठ में इस प्रकार है :
देवाउयकम्मासरीर-पुच्छा | गोयमा ! सरागसंजमेणं, संजमासंजमेणं, बालतवोकम्मेणं, अकामनिज्जराए, देवाउयकम्मासरीर० जाव पयोगबंधे । (८.६)
यहाँ देवायुष्यकार्मण शरीरप्रयोगबंध के बंध-हेतु निम्न रूप से बताये गये हैं : (१) सरागसंयम', (२) संयमासंयम, (३) बालतपःकर्म, (४) अकामनिर्जरा और (५) देवायुष्कार्मणशरीरप्रयोगनामकर्म का उदय ।
१. सकषाय चारित्र। कषायावस्था में सर्व प्राणातिपातविरमण, सर्व मृषावादविरमण, सर्व
अदत्तादानविरमण, सर्व मैथुनविरमण और सर्व परिग्रहविरमण रूप पाँच महाव्रतों का पालन। यह सकलसंयम है। पापों के आंशिक त्याग रूप देश-संयम। स्थूल प्राणतिपात, स्थूल मृषावाद, स्थूल अदत्तादान, स्वदारसंतोष, स्थूल परिग्रहविरमणव्रत, दिक्परिमाण, उपभोग-परिभोगपरिमाण, अनर्थदण्डविरमण, सामायिक, देशावकाशिक, पौषधोपवास और अतिथिसंविभाग व्रतों
का पालन। ३. बाल अर्थात् मिथ्यात्वी। उसकी निरवद्य तप क्रिया को बालतपःकर्म कहते हैं। ४. कर्म निर्जरा के हेतु अनशन आदि करना सकाम तप है। बिना अभिलाषा-परवशता
से-भूख, तृषा, धूपादि के परिषहों को सहन करना अकाम निर्जरा है।