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नव पदार्थ
१६. साता-असाता वेदनीय कर्म के बंध-हेतु विषयक अन्य पाठ (गा० २१-२२) :
इन गाथाओं में 'भगवतीसूत्र' के जिस पाठ का संकेत है वह इस प्रकार है :
सायावेयणिज्जकम्मासरीरप्पओगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ? गोयमा! पाणाणुकंपयाए भूयाणुकंपयाए एवं जहा सत्तमसए दुस्समाउद्देसए जाव अपरियावणयाए सायावेयणिज्जकम्मासरीरप्पओगनामाए कम्मस्स उदएणं सायावेयणिज्जकम्मा० जाव बंधे । असायावेयणिज्ज–पुच्छा । गोयमा ! परदुक्खणयाए परसोयणयाए जहा सत्तमसए दुस्समाउद्देसए जाव परियावणयाए असायावेयणिज्जकम्मा० जाव पओगबंधे । (८.६)
इस पाठ का अर्थ वही है जो टिप्पणी १३ में दिये हुए पाठ का है। इस पाठ से भी शुभयोग से ही पुण्य-कर्म का बंध ठहरता है।
१७. नरकायुष्य के बंध हेतु (गा० २३) :
इस विषय में भगवतीसूत्र का पाठ इस प्रकार है :
नेरइयाउयकम्मासरीर-पुच्छा। गोयमा ! महारंभयाए, महापरिग्गहयाए, कुणिमाहारेणं, पंचिंदियवहेणं, नेरइयाउयकम्मासरीरप्पओगनामाए कम्मस्स उदएणं नेरइयाउयकम्मा सरीर० जाव पओगबंधे । (८.६)
यहाँ नरकायुष्यकार्मणशरीरप्रयोग बंध के हेतु इस प्रकार बताये गये हैं : १. महा आरम्भ, २. महा परिग्रह, ३. मांसाहार, ४. पंचेन्द्रिय जीवों का वध और ५. नरकायुष्यकार्मणशरीरप्रयोगनामकर्म का उदय । 'स्थानाङ्ग' में इस विषय का पाठ इस प्रकार है :
चउहिं ठाणेहिं जीवा णेरतियत्ताए कम्मं पकरेंति, तंजहा-महारंभताते महापरिग्गहयाते पंचिंदियवहेणं कुणिमाहारेणं (४.४.३७३)
'तत्त्वार्थसूत्र में बहुआरम्भ, बहुपरिग्रह शील-राहित्य और व्रत-राहित्य को नरकायुष्य के बंध-हेतु कहे हैं :
बह्वारम्भपरिग्रहत्वं च नारकस्यायुषः । (६.१६) निःशीलव्रतत्वं च सर्वेषाम । (६.१६)