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पुण्य पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी १०-११
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यहाँ भी शुभ योग से निर्जरा और पुण्य दोनों कहे हैं। धर्मकथा करना निश्चय ही शुभ योग है, निरवद्य है और जिन-आज्ञा में है।
१०. वैयावृत्य से निर्जरा और पुण्य दोनों (गा० १३) :
यहाँ 'उत्तराध्ययन' के जिस पाठ की ओर संकेत है वह इस प्रकार है : वेयावच्चेणं भन्ते जीवे किं जणयइ । वे० तित्थयरनामगोत्तं कम्मं निबन्धइ ।। (२६.४३) इसका अर्थ यह है :
"भन्ते ! वैयावृत्य से जीव क्या उत्पन्न करता है ?" "वह तीर्थंकर नामकर्म का बंध करता है।"
निरवद्य वैयावृत्य शुभ योग है। वैयावृत्य आभ्यंतरिक तपों में से एक तप है'। अतः उससे निर्जरा स्वयंसिद्ध है। उसका फल पुण्य प्रकृति का बंध भी है।
११. तीर्थकर नामकर्म के बंध-हेतु (गा० १४) :
इस विषय का 'ज्ञाताधर्मकथा' का पाठ इस प्रकार है :
इमेहि य णं वीसाएहि य कारणेहिं आसेवियबहुलीकएहिं तित्थयरनामगोयं कम्म निव्वत्तेसु तंजहा
अरहंतसिद्धपवयणगुरुथेरबहुस्सुए तवस्सीसु। वच्छल्लया य तेसिं अभिक्ख नाणोवओगोय ।।१।। दंसणविणए आवस्सए य सीलव्वए निरइयारो। खणलवतवचियाए वेयावच्चे समाही य ।।२।। अपुब्वनाणगहणे सुयभत्ती पवयणे पहावणया। एएहिं कारणेहिं तित्थयरत्तं लहइ सो उ।।३।।
नायाधम्मकहाओ ८ यहाँ तीर्थंकर नामकर्म के बंध-हेतुओं की संख्या बीस बतलायी है जबकि 'तत्त्वार्थसूत्र' में इनकी संख्या १६ ही प्राप्त है। तत्त्वार्थसूत्रकार ने (१) सिद्ध-वत्सलता, (२) स्थविर-वत्सलता, (३) तपस्वी-वत्सलता और (४) अपूर्व ज्ञानग्रहण इन चार हेतुओं को सूत्रगत नहीं किया।
१.
उत्त० ३०.३०
पायच्छित्तं विणओ वेयावच्चं तहेव सज्झाओ। झाणं च विओसग्गो एसो अभिन्तरो तवो।।