________________
२१४
नव पदार्थ
भाष्य में 'प्रवचन वात्सलत्व' की व्याख्या में वृद्ध और तपस्वी के संग्रह - उपग्रह अनुग्रह को
अवश्य ग्रहण किया है ।
हम यहाँ आगमोक्त बीसों हेतुओं का तत्त्वार्थभाष्य, सर्वार्थसिद्धि टीका और सिद्धसेन टीका आदि के आधार से स्पष्टीकरण कर रहे हैं :
जिन बोलों से तीर्थंकर नामकर्म का बंध होता है वे इस प्रकार हैं :
(१) अरिहंत-वत्सलता : घनघातिय कर्मों का नाश कर केवलज्ञान, केवलदर्शन प्राप्त करने वाले अर्हतों की आराधना - सेवा' | 'तत्त्वार्थसूत्र' में इसके स्थान पर 'अरिहंत भक्ति' - 'परमभावविशुद्धियुक्ताभक्तिः' (६.२३ और भाष्य) है। भक्ति अर्थात् परम-उत्कृष्ट भाव-विशुद्धि युक्त अनुराग' ।
श्री सिद्धसेनगणि ने यहाँ भक्ति की व्याख्या करते हुए लिखा है- "सद्भूत अतिशयों का कीर्तन; वन्दन; सेवा: पुष्प, धूप, गन्ध से अर्चन; आयतन प्रतिमाप्रतिष्ठापन और स्नानविधिरूप भक्ति' ।" यह अर्थ मूल सूत्र भाष्यानुसारी नहीं, यह स्पष्ट है । 'परमभावविशुद्धियुक्ताभक्ति:' इसका अर्थ इन्होंने यथासंभव अभिगमन, वन्दन, पर्युपासन आदि भी किया है और वही ठीक है ।
(२) सिद्ध-वत्सलता : सिद्धों की आराधना - स्तव, गुणगान ।
(३) प्रवचन-वत्सलता । तत्त्वार्थ- 'प्रवचनभक्ति' । श्रुतज्ञान - सिद्धान्त का गुणगान' । अर्हत शासन के अनुष्ठायी श्रुतधर, बाल, वृद्ध, तपस्वी, शैक्ष, ग्लानादि का संग्रह-उपग्रह- अनुग्रह । बछड़े पर गाय जिस तरह स्नेह रखती है उस तरह साधर्मिक पर निष्काम स्नेह |
१. जयाचार्य (भ्रमविध्वंसनम् ) पृ० ३८१-८२
२. सर्वार्थसिद्धि : भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागो भक्तिः
३.
सिद्धसेन टीकाः सद्भूतातिशयोत्कीर्तनवन्दनसेवापुष्पधूपगन्धाभ्यर्चनायतनप्रतिमाप्रतिष्ठापनस्नपनविधिरूपा
४. सिद्धसेन टीका : यथासम्भवमभिगमनवन्दनपर्युपासनयथाविहितक्रमपूर्वकाध्ययनश्रवणश्रद्धान
लक्षणा
५. जयाचार्य (भ्रमविध्वंसनम्) पृ० ३८२
६. जयाचार्य (भ्रमविध्वंसनम् ) पृ० ३८२
७. (क) भाष्य : अर्हच्छासनानुष्ठायिनां श्रुतधराणां बालवृद्धतपस्विशैक्षग्लानादीनां च सङ्ग्रहोपग्रहानुग्रहकारित्वं प्रवचनवत्सलत्वमिति ।
(ख) सर्वार्थसिद्धि : वत्से धेनुवत्सधर्मणि स्नेहः प्रवचनवत्सलत्वम् ।