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नव पदार्थ
करना-शान्त करना साधु-समाधि है।
'समाधि' का अर्थ है चित्तस्वास्थ्य । सिद्धसेन ने इसका अर्थ किया है-स्वस्थता निरुपद्रवता का उत्पादन।
(१८) अपूर्व ज्ञान-ग्रहण : अप्राप्त ज्ञान का ग्रहण करना। (१६) श्रुति-भक्ति : सिद्धान्त की भक्ति । (२०) प्रवचन-प्रभावना : 'तत्त्वार्थसूत्र' में इसके स्थान पर 'मार्ग-प्रभावना' है। अभिमान छोड़, ज्ञानादि मोक्ष मार्ग को जीवन में उतारना और दूसरों को उसका उपदेश दे कर उसका प्रभाव बढ़ाना।
आचार्य पूज्यपाद ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है-"ज्ञान, तप, दान और जिन-पूजा के द्वारा धर्म का प्रकाश करना ।"
यह व्याख्या आचार्य उमास्वाति की स्वोपज्ञ उपर्युक्त व्याख्या से भिन्न है। दान और जिन-पूजा को प्रवचन-प्रभावना का अंग मानना मूल आगमिक व्याख्या से बहुत दूर
तीर्थङ्कर बंधकर्म के जो हेतु आगमिक परम्परा तथा श्वेताम्बर-दिगम्बर ग्रंथकारों के द्वारा प्रतिपादित हैं वे सब शुभ योग रूप हैं। उनके अर्थ में बाद में जो अन्तर आया वह स्पष्ट कर दिया गया है। उनमें से अनेक बोल बारह प्रकार के तपों के भेद हैं, जिनमें निर्जरा स्वयंसिद्ध है। इस तरह सावद्य योगों से निर्जरा और साथ ही पुण्य का बंध होता है, यह अच्छी तरह से सिद्ध है।
१२. निरवद्य सुपात्र दान से मनुष्य-आयुष्य का बंध (गा० १५) :
'सुख विपाक सूत्र में सुबाहु कुमार का कथा-प्रसंग इस रूप में है : एक बार भगवान महावीर हस्तिशीर्ष नामक नगर में पधारे। वहाँ के राजा अदीनशत्रु
१. सर्वार्थसिद्धि : यथा भाण्डागारे दहने समुत्थिते तत्प्रशमनमनुष्ठीयते बहूपकारत्वात्तथाऽनेकव्रत
शीलसमृद्धस्य मुनेस्तपसः कुतश्चित्प्रत्यूहे समुपस्थिते तत्सन्धारणं समाधिः २. नायाधम्मकहाओ ८.६६ अभयदेव टीका : ३. भाष्य : सम्यग्दर्शनादेर्मोक्षमार्गस्य निहत्य मानं करणोपदेशाम्यां प्रभावना ४. सवार्थसिद्धि : ज्ञानतपोदानजिनपूजाविधिना धर्मप्रकाशनं मार्गप्रभावना